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१८६ अलबेली आम्रपाली
"ठीक है, पाली ! मैं तेरी भावना का तिरस्कार भी करना नहीं चाहता।" "धन्य हुई।" कहकर आम्रपाली ने पूछा-'आप कहां स्थिर होंगे?"
"प्रिये ! अभी स्थान का निश्चय तो नहीं किया है । पर मेरा विचार उज्जनी जाने का है।"
"उज्जनी 'इतनी दूर ? नहीं, नहीं, आप वैशाली के बाहर ही किसी प्रदेश में रहें तो...।"
भूगर्भ-मार्ग पर चलते-चलते बिंबिसार ने कहा-"प्रिये ! तेरे हृदय को किसी भी प्रकार का दुःख न हो इसकी सम्भाल रखना है। चिन्ता और शोक का प्रभाव भावी पीढ़ी पर पड़ता है । इसलिए सतत आनन्दित रहना, प्रसन्न रहना।"
आम्रपाली मौन रही। चलते-चलते उसने अपने उत्तरीय के अंचल से आंखें पोंछी।
बिबिसार ने कहा-"प्रिये ! तुमने मेरी मंजूषा भेजने के लिए कहा था, परन्तु मेरी इच्छा के प्रति तुमने ध्यान नहीं दिया..."
"आपकी इच्छा मैं समझ गयी । पेटिका में जो रत्नहार है वह मैं ले लूंगी।" उत्तर में बिंबिसार ने आम्रपाली का कंधा दबाया। विरह की वेदना के बीच भी आम्रपाली का मन क्षण भर के लिए प्रफुल्लित हो गया।
तीनों तेजी से चल रहे थे। एक घटिका और बीत गयी।
आम्रपाली ने मौन भंग कर कहा-"महाराज ! अब हम यक्ष मन्दिर के पास आ गए हैं।"
बाहर निकलने का गुप्त द्वार आ गया। आम्रपाली ने अपने साथ वाली चाबी से द्वार खोला। चाबी का स्पर्श होते ही एक छोटा-सा छेद खुला। उसमें एक लोह का चक्का था । आम्रपाली ने उस चक्के को दस-बारह बार घुमाया और सबके देखते-देखते दीवार में एक मनुष्य आसानी से निकल सके उतना छिद्र हो गया।
तीनों बाहर आ गए।
विदा करते समय आम्रपाली बिंबिसार से लिपट गयी । वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर अविरल रुदन के वेग ने उसकी वाणी को रोक दिया। वह बोल नहीं सकी।
बिबिसार ने आम्रपाली का गाढ आलिंगन कर, चुंबन देते हुए कहा"प्रिये ! तू अब शीघ्र ही भवन में चली जा । मेरी चिन्ता मत करना।"
"आपके पुनः दर्शन..." कहते-कहते आम्रपाली सुबकने लगी। बिबिसार बोला-"पाली ! मिलन का मूल्य विरह से ही आंका जा सकता