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१८० अलबेली आम्रपाली
नहीं रहा । राग ने मेरे मन को परवश कर डाला है।"
आम्रपाली अपने आसन से उठी और स्वामी के चरणों में नत होकर बोली-"स्वामी ! मेरा सारा विषाद अस्त हो गया है।" ____ "प्रिये ! जहां आनन्द और जीवन है, जहां ज्ञान और प्रेम है वहां विषाद का अस्तित्व ही कसे रह सकता है ?" ___ग्रीष्म का उत्तरकाल चल रहा था। फिर भी वातावरण सौम्य और स्निग्ध था।
३८. आशा का दीप (१) दूसरे दिन।
बिंबिसार ने प्रियतमा का हाथ पकड़कर कहा-"पाली ! मेरे प्रस्थान का शुभ दिन कौन-सा निश्चित किया है ?"
'मैंने एक ज्योतिषी को बुला भेजा है। वे अभी-अभी आते ही होंगे। माध्विका उन्हें लेने गई है।" आम्रपाली ने कहा।
"वे वृद्ध नमित्तक ?"
"नहीं, ये तो ब्राह्मण कुंडग्राम के एक आचार्य हैं। वे कहीं नहीं जाते । पर मेरे बुलाने पर वे अवश्य आएंगे । मेरे पिता उनके परम मित्र थे। आचार्य भी मुझे कन्यातुल्य ही मानते हैं।"
दोनों के बीच यह वार्तालाप चल ही रहा था। इतने में ही माध्विका खंड में आई और बोली-"देवी की जय हो..."
"क्या हुआ ? आचार्य कब आएंगे?"
"देवि ! आपका संदेश सुनकर आचार्य मेरे साथ आने के लिए तैयार हो गए। मैं उन्हें साथ लेकर आई हूं।"
"क्या वे बाहर खड़े हैं ?"
"नहीं अतिथिगृह में उनका स्वागत कर मैं आपको यह समाचार देने आई हूं। आप जैसी आज्ञा करेंगी वैसी ही मैं उनकी व्यवस्था कर दूंगी।" माविका ने कहा। ___ "आचार्य को यहीं ले आओ। एक दासी को कहना कि वह स्वर्ण का आसन यहां रख जाए।"
"जी।" कहकर माध्विका चली गई।
कुछ ही क्षणों में एक दासी उस खंड में स्वर्ण का आसन रखकर चली गई... और माध्विका भी आचार्य देवानन्द के साथ खंड में प्रविष्ट हुई।
बिंबिसार और आम्रपाली ने खड़े होकर नमस्कार किया। आचार्य ने आशीर्वाद दिया।