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१०६ अलबेली आम्रपाली
पर वह नहीं जानती थी कि आचार्य अग्निपुत्र उसे राजनीति शास्त्र नहीं सिखायेंगे । वे उसे राजनीति का एक अभिशापभरा साधन बनाना चाहेंगे ।
यह कल्पना चौदह वर्ष की कादंबिनी के मन में कैसे आए? रथ आश्रम के पथ पर तीव्र गति से चला जा रहा था। वातावरण शांत, भव्य और निर्मल था।
२३. मधुयामिनी देवि आम्रपाली और बिंबिसार-दोनों अपने-अपने अश्वों के साथ सप्तभूमि प्रासाद के भव्य उद्यान में प्रविष्ट हुए तब दिन का अंतिम प्रहर चल रहा था। सूर्यास्त होने में अभी विलंब था।
वैशाली के मुख्य द्वार में प्रवेश करते समय आम्रपाली के मन में जो संशय था, वैसा कुछ भी नहीं हुआ। वे हजारों व्यक्तियों के बीच से गुजरे, पर किसी ने उन्हें नहीं पहचाना। दोनों दो भिन्न-भिन्न पोशाकों में थे । एक का मालवीय वेश था और आम्रपाली आनत युवक के वेश में थी। फिर भी बिना रोक-टोक के वे दोनों सप्तभूमि प्रासाद में पहुंच गए।
प्रासाद के मुख्य चौकीदार मे दोनों से परिचय मांगा। आम्रपाली ने अपनी मुद्रिका दिखाई और वह तत्काल झुक गया। चौकीदार को देवी के इस आकस्मिक आगमन पर आश्चर्य अवश्य हुआ, पर वह कुछ पूछने की स्थिति में नहीं था।
दासत्व की एक मर्यादा होती है और प्रत्येक दास को उसका ध्यान रखना पड़ता है।
वे दोनों आगे बढ़े। एक दास उनका परिचय जानने के लिए आगे आया। वह कोई प्रश्न करे, उससे पूर्व ही आम्रपाली अपने अश्व से नीचे उतरी और दास की ओर उन्मुख होकर बोली-'अश्व को पहचाना नहीं ?"
दास ने आवाज पहचान ली। तत्काल मस्तक झुकाकर बोला-"देवि ! क्षमा करें.''आप इस प्रकार।"
"महाराज के पास से वीणा संभाल।" आम्रपाली ने बीच में ही टोक दिया। __ वह दास महाराज बिंबिसार के अश्व के पास गया, वीणा संभाली। बिंबिसार घोड़े से नीचे उतरा और फिर दोनों प्रासाद में आगे बढ़े।
उस समय वहां भी अनेक परिचारिकाएं एकत्रित हो गईं। आम्रपाली ने उनको भिन्न-भिन्न आदेश दिए। वह बिंबिसार के पास जाकर मधुर स्वरों में बोली--"स्वामिन् ! मैं आपका अपने भवन में स्वागत करती हूं.''आप मेरे साथ भवन में पधारें।"