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1055. गोत्र कर्म का लक्षण एवं कार्य क्या है?
उ. गोत्र कर्म कुम्भकार के समान है। कुम्भकार जैसे—छोटे-बड़े कलश और
मद्यघट, लोकपूज्य अथवा लोकनिन्द्य मन चाहे घड़ों का निर्माण करता है वैसे ही यह कर्म जीव के व्यक्तित्व को श्लाध्य - अश्लाध्य बनाता है। इस कर्म के उदय से जीव उच्च-नीच बनता है।
1056. गोत्र कर्म का उदय कौनसे गुणस्थान तक होता है ? उ. पहले से चौदहवें गुणस्थान तक।
1057. गोत्र कर्म का बंध कौनसे गुणस्थान तक होता है ? उ. पहले से दसवें गुणस्थान तक।
1058. गोत्र कर्म का उपशम और क्षयोपशम कौनसे गुणस्थान तक होता है ? उ. गोत्र कर्म का उपशम और क्षयोपशम नहीं होता ।
1059. गोत्र कर्म का क्षायिक भाव कौनसे गुणस्थान में होता है ?
उ. गोत्र कर्म का क्षायिक भाव गुणस्थानों में नहीं सिद्धों में होता है। 1060. वंदना करता हुआ जीव कौनसे कर्म का बंध और क्षय करता है? उ. वंदना करना हुआ जीव उच्च गोत्र कर्म का बंध और नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है।
1061. गोत्र कर्म बंध के आठ मदों को घटित करने वाले उदाहरण बताइये ? राजपुत्र- पुरोहित पुत्र-कर्मसंहिता हरिकेशबल मुनि
उ.
1. जाति मद
भ. महावीर का जीव मरीचि के भव में
2. कुलमद 3. बलमद 4. रूपमद 5. लाभ मद
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राजा श्रेणिक द्वारा एक तीर में गर्भवती हिरणी को मारना
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- सनत्कुमार चक्रवर्ती
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सुभूय चक्रवर्ती
6. श्रुत मद
- स्थूलिभद्र
7. ऐश्वर्य मद - मम्मण सेठ
कर्म-दर्शन 221