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818. जीव शुभ दीर्घायुष्य कर्म का बंध कितने कारणों से करता है? उ. तीन कारणों से
1. जीव हिंसा न करने से। 2. मृषावाद न बोलने से। 3. तथा रूप श्रमण माहन को वंदना-नमस्कार कर, उनका सत्कार सम्मान कर, कल्याण कर, मंगल-देवरूप तथा चैत्यरूप की पर्युपासना कर, उन्हें तथा प्रीतिकर अशन, पान, खादिम, स्वादिम का दान करने से।
उपरोक्त तीन कारणों से जीव शुभदीर्घायुष्य कर्म का बंधन करते हैं। 819. शुभ दीर्घायुष्य का बंध कौनसी गति में होता है?
उ. नरकगति को छोड़कर तीनों गतियों में हो सकता है। 820. शुभ आयुष्य कर्म किसे कहते हैं और उसकी उत्तरप्रकृतियां कितनी हैं? उ. जो आयुष्य कर्म पुण्यरूप हो, वह शुभ आयुष्य कर्म है। इसकी तीन उत्तर
प्रकृतियां हैं1. जिससे देवभव का आयुष्य प्राप्त हो, वह देवायुष्य कर्म।' 2. जिससे मनुष्य भव का आयुष्य प्राप्त हो, वह मनुष्यायुष्य कर्म। 3. जिससे तिर्यंचभव का आयुष्य प्राप्त हो, वह तिर्यंचायुष्य कर्म।
स्वामीजी के अनुसार सर्वदेव शुभ नहीं होते, न सर्व मनुष्य शुभ होते हैं और न सर्व तिर्यंच ही। शुभ देव, शुभ मनुष्य और यौगलिक तिर्यंच के भव
विषयक आयुष्य के कर्म ही शुभायुष्य कर्म के उत्तरभेद है। उनके अनुसार1. जिस कर्म के उदय से शुभ देव भव का आयुष्य प्राप्त हो, वह शुभ
देवायुष्य कर्म है। 2. जिस कर्म के उदय से शुभ मनुष्य भव का आयुष्य प्राप्त हो वह शुभ
मनुष्यायुष्य कर्म है। 3. जिस कर्म के उदय से युगलतिर्यंच भव का आयुष्य प्राप्त हो वह शुभ
तिर्यंचायुष्य कर्म है। 821. अशुभ आयुष्य कर्म किसे कहते हैं? उ. जो आयुष्य कर्म पाप रूप हो, वह अशुभ आयुष्य कर्म है। नरकायुष्य कर्म निश्चय ही अशुभ है और पाप कर्म की कोटि में आता है। आ.भिक्षु के
अनुसार कुदेव, कुनर और कई तिर्यंचों का आयुष्य भी अशुभ ही होता है। 822. क्या देवताओं की अकाल मृत्यु होती है? .
उ. नहीं। क्योंकि उनका आयुष्य निरुपक्रम (निश्चित) होता है।
1. कथा सं. 35
कर्म-दर्शन 177