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कारण उसी चिता में अपने प्राणों की आहुति दे देता है। पूर्वभव का यह अनुराग आगे भी संक्रान्त होता है। अनुराग के अनुबन्ध के कारण पूर्वजन्म की स्मृति होना, पुनः पूर्वभव के पति से मिलना, फिर मुनि के धर्मोपदेश से प्रबल विरक्ति होना, पति-पत्नी दोनों का दीक्षित होना आदि-आदि इस उपन्यास के घटक हैं।
बहुत वर्षों से यह उपन्यास नए संस्करण की प्रतीक्षा में था। उपन्यासरसिकों की रुचि और मांग को देखकर इसका शीघ्र प्रकाशन हो जाना चाहिए था। परन्तु कुछेक अपरिहार्य कारणों से इसका प्रकाशन नहीं हो सका। जैनविश्व भारती ने इसके प्रकाशन का दायित्व लिया और अब यह शीघ्र प्रकाशित होकर लोगों की रुचि और उनकी उत्कंठा को तृप्त कर सकेगा, ऐसी आशा है।
इस सारे कार्य को निष्पत्ति तक पहंचाने में जिस लगन और परिश्रम से दो मुनियों-मुनि राजेन्द्रकुमारजी और मुनि जितेन्द्रकुमारजी ने अति निष्ठापूर्वक कार्य किया है, वे साधुवाद के पात्र हैं।
आचार्य तुलसी मेरे दीक्षा गुरु थे। उन्होंने मुझे अनेक दिशाओं में विकास करने का अवसर दिया। उनकी अनन्त उपकार की रश्मियों को आत्मसात् करता हुआ मैं उनके प्रति श्रद्धाप्रणत हूं। __ आचार्य महाप्रज्ञ के पास मैं एक लम्बे समय तक रहा। उनकी अत्यधिक समीपता को साधने और पर्युपासना करने का स्वर्णिम अवसर मिला। उन्होंने मेरे लिए वह सब कुछ किया जो एक अल्पज्ञ को बनाने के लिए होता है। वे मेरे ज्ञानदाता और भाग्यनिर्माता थे। उनके चरणों में बैठकर मैंने बहुत कुछ पाया। उनका इस संसार से विदा होना मेरे जीवन की असहनीय घटना है। काश! आज वे होते तो प्रस्तुत उपन्यास का लोकार्पण उनके करकमलों द्वारा होता। शायद यह नियति को मान्य नहीं था। इसलिए नियति अनियति ही रह गई।
आचार्य महाश्रमण तेरापंथ धर्म संघ के ग्यारहवें पट्टधर हैं। उनकी करुणा और वत्सलता तेरापंथ के साधु-साध्वियों के लिए जीवातु बने, यही मेरी कामना है। उनके प्रति मैं अपनी आस्था को उंडेलता हुआ भावभीनी अभिवन्दना प्रस्तुत करता हूं।
उपन्यासरसिक पाठक प्रस्तुत उपन्यास से शिक्षा ग्रहण कर अपनी दिशा और दशा को बदलकर जीवन को रूपान्तरित कर सकेंगे, ऐसी तोव्र अभीप्सा के साथ सरदारशहर, सभा भवन
आगममनीषी मुनि दुलहराज २५ जुलाई २०१०
६ / पूर्वभव का अनुराग