________________
'ओह !' कहकर सारसिका तरंगलोला की ओर जिज्ञासाभरी दृष्टि से देखने
लगी।
११. व्यथा का उपाय
अन्तर्मानस में उभरते हुए पूर्वजन्म के संस्मरणों के सौरभ में लवलीन बनी हुई तरंगलोला की ओर देख रही सारसिका ने मधुर स्वरों में कहा -'मेरे पर विश्वास |'
सारसिका! अतीत के जीवन-संस्मरण प्राणी को मुग्ध बना देते हैं। मैं तेरे से कोई बात नहीं छिपाऊंगी परन्तु मैं अपनी बात कहां से प्रारम्भ करूं, यही सोच रही हूं ठीक है। तू अंगदेश का नाम तो जानती ही है। अपने पड़ोस में ही है। वह देश अत्यंत समृद्ध, संस्कारी और सुखी है । अंगदेश की जनता शत्रु, चोर और दुष्काल से निर्भय है। क्योंकि राज्य का राजा सदाचारी, धर्मप्राण और कर्तव्यनिष्ठ है। इस देश की प्रजा को अन्य स्वर्ग की कल्पना होती ही नहीं। इस अंगदेश की राजधानी चंपा नगरी है। पवित्र गंगा अंगदेश के मध्य से बहती है। गंगा के दोनों तटों पर विविध वन-उपवन है। वहां हाथी, बाघ, सिंह, वराह जैसे पशु तथा हंस, चक्रवाक, मयूर जैसे पक्षी भी रहते हैं।
ऐसा था
मैं वहीं एक चक्रवाकी के रूप में थी । मेरा पति चक्रवाक अति प्रेमार्द्र था। संसार में चक्रवाकों का स्नेह अपूर्व माना जाता है। और हम दोनों का स्नेह जीवन की एक मधुर कविता के समान बन गया था। हम दोनों एक क्षण के लिए भी विलग नहीं होना चाहते थे कभी विलग होने का क्षण भी नहीं आया । प्रकृति की कृपा थी कि हम दोनों पूर्ण नीरोग आनन्दपूर्ण जीवन बिताने वाले और प्रेमा थे। वियोग का एक क्षण भी हमारे लिए युग के समान बन जाता था हमारा स्नेहमय जीवन हमारा सुखी संसार हमारे सुखी जीवन में एक चिनगारी उछली एक लुभावने सरोवर के पास कल्लोल कर रहे थे उस समय एक विशालकाय हाथी सरोवर में जलक्रीड़ा करने आया वह जल में उतरा घड़ी भर जलक्रीड़ा में मस्त रहा इतने में ही एक पारधी वहां शिकार के लिए आ पहुंचा हम दोनों प्रेमलीला में मस्त थे हाथी पानी से बाहर आया हम वहां से कुछ उड़े और पारधी ने एक बाण छोड़ा " वह बाण मेरे प्रियतम को लगा जैसे वृन्त से फूल टूटकर नीचे गिर पड़ता है, वैसे ही मेरा प्रियतम एक हल्की चीख के साथ जमीन पर लुढ़क गया, हाथी भाग गया"
और एक दिन अकस्मात् उस समय हम गंगा के किनारे
'स्वामी को क्या हुआ, यह जानने के लिए मैं नीचे आई और अपनी चोंच से प्रियतम के शरीर को पंपोलने लगी परन्तु मेरे स्वामी के प्राण निकल चुके थे.. मैं अकेली सजल नेत्रों से प्रियतम को जागृत करने के लिए प्रयत्न करने
७२ / पूर्वभव का अनुराग