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आग्रहपूर्वक भोजन के लिए ले गया था। इसलिए मुझे भी जाना पड़ा।' रुद्रयश ने बहाना बनाया।
मनुष्य जब जिन्दगी के एक सोपान से लड़खड़ा जाता है अथवा एक दूषण को अपना लेता है तो फिर वह लड़खड़ाता ही जाता है और धीरे-धीरे दूपणों की एक लंबी परंपरा का वह मालिक बन जाता है।
पिता ने पुत्र की बात मान ली, परन्तु उपालंभभरे स्वरों में कहा–'पुत्र! हम अयाचक ब्राह्मण हैं। इस प्रकार कहीं आना-जाना उचित नहीं होता...... आगे से याद रखना...'
'जी' कहकर रुद्रयश अपने कमरे में चला गया। ___ पहली सफलता से रुद्रयश का हौंसला बढ़ चुका था. धीरे-धीरे वह और आगे बढ़ा और चार-छह अपराधीवृत्ति के मित्र उसे मिल गए...' जो पंडित बाहर का भोजन करना पाप मानता था, वही पंडित-पुत्र रुद्रयश बहुधा बाहर ही खाता रहता था।.... इतना ही नहीं, वह पिताजी को ज्ञात न हो इस प्रकार रात्रि में द्यूतगृह पहुंच जाता था...... छोटी-छोटी चोरियां करना तो इसके लिए बाएं हाथ का खेल जैसा बन गया था।
पाप का मार्ग सहज-सरल होता है, इसीलिए मनुष्य उसके परिणामों का विचार किए बिना उसके प्रति ललचाता रहता है।
__ रुद्रयश शराब भी पीने लगा...... एक रात उसके साथी उसको घर तक पहंचा गए।
महापंडित आज रात में अचानक उठे और रुद्रयश के कमरे में उसे खोजने गए किन्तु पुत्र की शय्या सूनी पड़ी थी.... इससे वे मर्माहत हुए और पुत्र की प्रतीक्षा में जागते हुए बैठे थे। और आधी रात के बाद शराब के नशे में धुत रुद्रयश घर पहुंचा
महापंडित पुत्र की यह दशा देखकर चौंके, पर बोले कुछ नहीं ..... रुद्रयश सीधा अपने कमरे में गया और शय्या पर सो गया। महापंडित रुद्रयश की शय्या के निकट गए..... शराब की दुर्गन्ध आ रही थी।
महापंडित दो क्षण विचारमग्न होकर खड़े रहे..... फिर वे बाहर आए..... उन्होंने सोचा-'ऐसे दुष्ट प्रकृति वाले पुत्र से तो पुत्ररहित होना अच्छा है। उन्होंने माधव को जगाया। माधव बोला-'क्यों पंडितजी?'
'मेरे साथ चल...।'
माधव पंडितजी के पीछे-पीछे रुद्रयश के कमरे में गया। महापंडित बोले-माधव! यह रुद्रयश चोरियां करता है, ऐसा मैंने सुना था परन्तु माना नहीं था... यह जुआ भी खेलता है, यह भी मैंने सुना था.. परन्तु मैंने विश्वास
पूर्वभव का अनुराग / ३९