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प्रवृत्ति से वनमहिष क्रोधान्ध होकर येन-केन-प्रकारेण सुदंत से भिड़ने का प्रयत्न कर रहा था। प्रयत्न की विफलता से उसकी खीज बढ़ी और तब उसने भूमि पर अपना सिर पटका और दुगुने वेग से वह सुदंत की ओर दौड़ा।
लगभग एक घटिका पर्यन्त सुदंत वनमहिष को इस प्रकार छकाता रहा। फिर उसे यह भान हुआ कि इस प्रकार अधिक चक्कर लगाना उचित नहीं है, क्योंकि उससे स्वयं भी थक कर निढाल हो सकता है और तब विजय का यह अवसर हाथ से छिटक सकता है।
वनमहिष चक्कर लगाने के कारण हांफ रहा था और विश्राम करने के लिए एक स्थान पर खड़ा रह गया था। उसी समय सुदंत तेज आवाज में ललकारते हुए वनमहिष की ओर दौड़ा।
वृक्ष पर बैठकर देखने वाले पारधी नर-नारी अवाक् बन गए। वासरी के हृदय की धड़कन अत्यधिक बढ़ गई ।
मौत और मनुष्य के बीच का यह कातिल संग्राम था। विशालकाय व महिष का एक ही मस्तक-प्रहार सुदंत के लिए प्राणघातक हो सकता था....
परंतु.......
आंख की पलक झपकते ही सुदंत और वनमहिष-दोनों आपस में गुंथ गए। सुदंत ने अपने प्रचंड हाथों से वनमहिष के दोनों सींग पकड़ लिये।
इससे वनमहिष का रोष प्रचंड हो गया। उसकी आंखों से अंगारे बरसने लगे। उसने पूर्ण वेग से मस्तक को झटका दिया.... परन्तु सुदंत के बाहुबली हाथों से वह छूट नहीं सका। सुदंत में बाहुशक्ति ही नहीं थी, साथ-साथ यौवन की मदमस्ती भी थी और उसके हृदय में एक तीव्र अभीप्सा उछल रही थी। वनमहिष के उछल-कूद से भी सुदंत ने उसके सींग नहीं छोड़े।
और यह मल्लयुद्ध प्रत्येक दर्शक को थरथराने वाला हो गया।
कुछ क्षण बीते होंगे कि वनमहिष ने सुदंत को प्रचंड शक्ति के साथ ऊपर उछाला और यह देखते ही वासरी चीख उठी......
सभी प्रेक्षकों का श्वास वहीं अवरुद्ध हो गया।
किन्तु सुदंत ने सींग नहीं छोड़े। उसकी पकड़ और अधिक मजबूत हो गई। वह जानता था कि यदि सींग छोड़ दूंगा तो महिष मेरा काल बन जाएगा।
सींग मुक्त कराने के असफल प्रयत्न के कारण महिष अत्यधिक विकराल हो गया और तब वीरवर सुदंत ने श्वास को रोक कर इतना दबाव दिया कि महिष का मस्तिष्क दबा...खूब दबा... उसे चसकने नहीं दिया। महिष ने पुनः प्रचंड वेग से सुदंत को उछाला। हाथों से सींग छूट गए।
सुदंत ऊपर उछला। नीचे आते ही सीधा महिष की पीठ पर आ जमा।
वह जानता था कि महिष का कमजोर भाग कौन-सा होता है। उसने समय १४ / पूर्वभव का अनुराग