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उसी चिता में कूद पड़ी। मेरा हृदय रो पड़ा। अब मैं वहां अकेला था। मैं भी उसी जलती चिता में कूद पड़ा और जलकर राख हो गया ।
वहां से मरकर मैं वाराणसी के महापंडित के घर में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ और मेरा नाम रखा रुद्रयश मुनि दो क्षण मौन रहे । पद्मदेव और तरंगलोला अपने पूर्वभव से गूंथी हुई इस वार्ता को सुनने में तन्मय हो रहे थे। मुनि ने आगे कहा- 'मैं अपने पैतृक संस्कारों को तिलांजलि देकर चोरों के गिरोहों में जा मिला। मैं उस दस्यु टोली का नायक बना और न जाने क्या-क्या अत्याचार किए शराब, मांस और व्यभिचार मेरे दैनंदिन के व्यवहार थे। एक दिन गंगा के किनारे मैंने आप दोनों को देखा। आप दोनों एक-दूसरे में ओतप्रोत थे। मैंने अपने साथियों के साथ तुमको घेर लिया और सारे अलंकार छीनकर तुम दोनों को सरदार के पास ले आया।'
'श्रेष्ठिपुत्र! अब सारा वृत्तान्त तुमको याद आ रहा है, ऐसा प्रतीत हो रहा है। परन्तु एक बात मुझे कहनी है कि तुम दोनों मेरे इस त्याग मार्ग के निमित्त कैसे बने ? मैंने श्रेष्ठिपुत्र को एक खंभे से बांध दिया था और तरंगलोला वहां एकत्रित स्त्रियों को अपने पूर्वभव की कथा कह रही थी। उस वृत्तान्त को सुनकर मुझे जातिस्मृति ज्ञान हुआ। पारधी के भव में मेरे हाथों हुए भयंकर अपराध की स्मृति हो आई । इस भव में पुनः ऐसा अपराध न हो, मुझे नारकीय यातनाएं न भोगनी पड़े - यह भावना मेरे हृदय में उभरी और तब मैं आप दोनों को सही-सलामत वनप्रदेश से बाहर ले आया मैंने निश्चय कर लिया था कि मुझे पापकर्म का सघन प्रायश्चित्त करना है और मुझे सुयोग मिला आचार्य भगवान् के दर्शन हुए और मैंने अपनी सारी बात उन्हें बताकर उनके पास दीक्षित हो गया उसके पश्चात् मैंने आगम अध्ययन में अपनी वृत्तियों को लगा दिया। ग्यारह वर्षों तक गुरु की सन्निधि में रहकर ज्ञानाभ्यास किया" गुरु ने मुझे एकाकी विहार की आज्ञा दी यह आज्ञा गीतार्थ होने के बाद ही प्राप्त होती है मेरा अहोभाग्य था कि मुझे आज्ञा मिल गई" आकस्मिक ढ़ंग से मैं यहां आ पहुंचा और मेरे उपकारी आप दोनों यहीं मिल गए। मैं आत्मसंयम से अपने कल्याणमार्ग में आनन्दपूर्वक रह रहा हूं और इस अनुत्तर धर्म का उपदेश देता हूं।' मुनि की जीवनकथा सुनकर दोनों विचारमग्न हो गए हो गए उनके मन में यही विचार आ रहा था कि एक समय यह विषरूप लुटेरा आज अमृतमय बन गया है और अपने कृत दोषों के निवारण के लिए स्वयं मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ कर रहा है। धन्य है इसके जीवन को ! धन्य है इसके पुरुषार्थ को और धन्य है इसकी आलोचनावृत्ति को
उनके नयन सजल
तरंगलोला ने प्रश्नायित दृष्टि से पद्मदेव की ओर देखा पद्मदेव प्रियतमा की आंखों में उभरे भाव को जान गया। तरंगलोला की आंखें कह रही
१४२ / पूर्वभव का अनुराग