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आपकी टोह में भेजा। प्रणाशक नगर की ओर जाने पर भी आपके कोई समाचार प्राप्त नहीं हुए। मैंने सोचा, वनप्रदेश के किसी छोटे गांव में आप रुके हों प्रकार खोज करते-करते मैं यहां पहुंचा और भाग्यवश आप यहां मिल गए । '
इस
अभी तक कुल्माश की दृष्टि तरंगलोला पर नहीं पड़ी थी। पद्मदेव के इंगित करने पर उसने नगरसेठ की कन्या की ओर देखा और बोला- 'देवी! आपकी स्थिति देखते हुए प्रतीत होता है कि आप अत्यंत पीड़ा में है। आपके परिवार वाले आपके विरह में आकुल-व्याकुल हैं। आप शीघ्र मेरे साथ चलें और अपने परिवार से मिलें। आपके पिताश्री ने तथा सेठ धनदेव ने पत्र लिखकर आपको घर लौट आने का आग्रह किया है । '
उसने पत्र पद्मदेव को दिया। पद्मदेव ने पत्र पढ़कर तरंगलोला को दे दिया।
फिर कुल्माश हस्ती दोनों को एक ब्राह्मण के घर ले गया। वहां विशुद्ध भोजन की व्यवस्था हो गई। भोजन आदि से निवृत्त होने के पश्चात् ब्राह्मणी ने तरंगलोला के फटे पैरों पर गाय के घी से मालिश की। दोनों ने काफी विश्राम किया । क्षुधा की शान्ति से समूची थकान काफूर हो गयी।
अपराह्न में कुल्माश हस्ती, सभी रक्षक और ये दोनों प्रणाशक नगर की ओर प्रस्थित हुए। कुल्माश का भवन भी इसी नगरी में था। सांझ के समय सभी वहां पहुंच गए।
कुल्माश ने एक उत्तम कक्ष में दोनों को उतारा। दोनों के लिए उष्ण जल की व्यवस्था की और कुछ सुवर्ण मुद्राएं देकर अपने व्यक्तियों को उत्तम वस्त्र खरीदने भेजा। पद्मदेव और तरंगलोला स्नान आदि से निवृत्त हुए। रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान होने के कारण दोनों रात्रि के प्रथम प्रहर में ही निद्राधीन हो गए।
दूसरे दिन कुल्माश हस्ती ने अपने दूत को कौशाम्बी नगरी में भेजकर नगरसेठ और धनदेव सेठ के वहां सारे समाचार कहला दिए। दो-तीन दिन रहकर पद्मदेव और तरंगलोला स्वस्थ हो गए और नए परिधान पहनकर मूल स्थिति में आ गए। उन दोनों के मन में एक शल्य चुभ रहा था कि माता-पिता को बना कहे, घर से पलायन करने के कारण अब उनको मुंह कैसे दिखाएंगे ? दोनों को यह प्रश्न झकझोर रहा था परन्तु माता-पिता के दर्द का विचार करते हुए दोनों को यही प्रतीत हो रहा था कि पूर्वजन्म के प्रेमबंधन के आवेशवश हुई भूल माता-पिता के आशीर्वाद से मिट जाएगी।
दो कोस जाने पर पद्मदेव ने रथ रुकवाया और स्वयं घोड़े से उतरकर तरंगलोला के रथ में बैठ गया, क्योंकि रथ में तरंगलोला अकेली थी उसके साथ बातचीत करने वाला कोई नहीं था ।
सांझ होते-होते वे वैसालिक नगर में आए। वहां पांथशाला में रहकर सूर्यास्त से पूर्व भोजन से निवृत्त होने के लिए बैठे । भोजन के अंत में जलपान
पूर्वभव का अनुराग / १३३