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________________ 'गत जन्म की विरह-व्यथा?' 'हां, बहिन! हमारा वृत्तान्त अत्यन्त करुण है। गंगा के जल से भरा हुआ एक सुन्दर सरोवर था। उसके आसपास सुंदर वन प्रदेश था। वन में अनेक प्रकार के पशु-पक्षी बसते थे। मैं चक्रवाकी थी....... मेरे पति चक्रवाक थे। एक दिन एक गजराज सरोवर में जलक्रीड़ा करने आया हम दोनों कल्लोल कर रहे थे। हम इतने सुखी थे कि एक-दूसरे की छाया बनकर सुखी जीवन जी रहे थे.....हमारी मस्ती...... हमारा प्रेम..... हमारा सहवास और हमारे कल्लोल एक महाकाव्य जैसा मधुर था।' पांचों स्त्रियां दत्तचित्त होकर जीवन-वृत्तान्त सुन रही थीं। दुर्दान्त लुटेरा रुद्रयश भी इस कथा में रस ले रहा था। तरंगलोला बोली-'हाथी की जलक्रीड़ा देखकर हम आनन्दित हो रहे थे..... जलक्रीड़ा कर गजराज किनारे आया। हम दोनों ऊंचे उड़ गए...... दूर से एक पारधी ने तीर छोड़ा। वह बाण मेरे प्राणेश्वर को लगा..... उनकी एक पांख कटकर नीचे गिर गई..... वे लहलुहान होकर रेतीले किनारे पर गिर पड़े..... हाथी भाग गया..... मैं वेदनाभरे हृदय से स्वामी की काया पर गिरकर अपने पांखों से उन्हें सहलाने लगी... परन्तु वे निष्प्राण हो गए थे. वह पारधी वहां आया...." उसने लकड़ियों की एक चिता बनाई। उस पर मेरे प्राणनाथ को रखकर उसमें अग्नि लगा दी। मैं आकाश में चक्कर लगा रही थी...... रोती-रोती नीचे देख रही थी। चिता जल उठी। मैंने सोचा, प्रियतम के बिना मैं कैसे जी पाऊंगी और यदि वे दूर चले जायेंगे तो मैं उनसे मिलूंगी कैसे? यह सोचकर संपूर्ण वेदना के साथ मैं भी चिता में कूद पड़ी।..' ____ पांचों स्त्रियों के नयन आंसुओं से भीग चुके थे। रुद्रयश भी गहरे विचार में डूब गया। वह मनोयोगपूर्वक वृत्तान्त सुन रहा था। तरंगलोला ने फिर वर्तमान जीवन की सारी घटना, जातिस्मृति ज्ञान की कथा, प्रियतम को पाने कार्तिकी पूनम को चित्रांकन पट्टों का प्रदर्शन... चित्रांकन देखते ही उसी नगरी में जन्मे प्रियतम को भी विगत जन्म की स्मृति होने की घटना..... दोनों के मिलन और गान्धर्व-विवाह की पूरी बात बताई। यह सारा सुनकर वह प्रौढ़ स्त्री बोली–बहिन! कठोरतम हृदय को भी पानी-पानी कर देने वाली है तेरे जीवन की कथा।' परन्तु जहां हृदयविहीन लुटेरे बसते हों, वहां कैसी करुणा और दया! मैं तो चाहती हूं कि तेरी वेदना शांत हो, दूर हो। तरंगलोला की पूरी बात सुनकर रुद्रयश भी कांप उठा। उसके हृदय में भारी हलचल होने लगी। उसका पाषाण हृदय चूर-चूर-सा होने लगा। पांचों स्त्रियां वहां से विदा हुईं। पूर्वभव का अनुराग / ११९
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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