SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'गांधर्व-विधि से तो इस नौका में भी विवाह-विधि संपन्न हो सकती है।' मधुर मुस्कान के साथ तरंगलोला बोली। _ 'पुष्प-मालाएं तो हमारे साथ हैं नहीं...' _ 'ये मालाएं तो कुछ ही समय में कुम्हला जाती हैं...... हम हाथ की मालाएं बनाएं और ......' 'ओह प्रिये!' कहकर पद्मदेव ने नौका खेने के दोनों दंड नौका में ले लिये और वह बोला-'तो अब इष्ट की स्तुति कर अटूट बंधन में बंध जाएं।' वैसे ही हआ। दोनों ने इष्टदेव की स्तुति की और परस्पर एक-दूसरे के गले में हाथों की माला बनाई....... करमाला बनाई.... दोनों परस्पर स्नेहपाश में बंध गए। नौका को गतिमान कर कुछ ही क्षणों में यमुना के रेतीले किनारे पर पहुंच गए। वहां कोई घाट तो था नहीं ..... फिर भी नौका वहां स्थिर रही। नौका को किनारे के पास पड़े पत्थर से बांध दिया। लगभग सौ कदम की दूरी पर एक सुन्दर वृक्ष था। दोनों वहां गए और अधीर हृदय से तृप्ति के आनन्द में डूब जाए। ठीक ही है कि ज्ञानी पुरुष भी काम के वशीभूत हो जाते हैं तो फिर इन दोनों युवा हृदयों की तो बात ही क्या? तृप्ति को संजोए दोनों पुनः नौका में आ बैठे....... नौका गतिमान हुई। तरंगलोला लज्जा और संकोचवश दृष्टि को ऊपर नहीं कर पा रही थी।। कुछ दूर जाने पर गंगा का संगम आया। पद्मदेव ने सावधानीपूर्वक नौका को गंगा में प्रवाहित किया। रात्रिकाल पूरा होने वाला ही था। गंगा का विशाल मैदान...... दोनों को गंगा की स्मृति हुई....... इस स्मृति के साथ ही साथ विगतभव की क्रीड़ास्थली गंगा की भी स्मृति हो आई। एकाध कोस दूर जाने पर दोनों ने देखा कि गंगा के दोनों तट वनप्रदेश से शोभित हो रहे हैं...... सूर्योदय हो चुका था. पक्षियों का कलरव संगीत-सा मधुर लग रहा था। पद्मदेव बोला-'किनारे पर प्रात:कर्म से निवृत्त होकर फिर आगे चलेंगे।' नौका किनारे पर आई। पद्मदेव ने नौका रोकी। दोनों नीचे उतरे। वातावरण अत्यंत मनोहर और प्रशान्त था..... भय का नामोनिशान नहीं था..... पद्मदेव ने चारों ओर दृष्टि विक्षेप कर कहा-'प्रिये! आसपास में कोई पल्ली भी दृष्टिगोचर नहीं होती।' 'हां, इस रेती पर किसी के पदचिन्ह भी नजर नहीं आते...... संभव है कि आसपास में गाढ़ वनप्रदेश हो।' पूर्वभव का अनुराग / १११
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy