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________________ सारसिका के लिए और कोई उपाय नहीं बचा था। उसे विश्वास हो गया कि तरंगलोला अब घर नहीं चलेगी। वह त्वरित गति से नगरसेठ के भवन की ओर गई। पद्मदेव कुछेक सामग्री लेकर इतने में ही आ पहुंचा। वह तरंग से बोला-'चल प्रिये! तेरे पिता को ज्ञात हो उससे पूर्व ही हम यहां से निकल जाएं।' तरंगलोला ने घबराहटभरे स्वरों में कहा-'मैंने अपनी सखी को अलंकार लाने भवन की ओर भेजा है.... कुछ देर उसकी राह देखनी होगी।' पद्मदेव ने कहा-'प्रिये! नीतिकार कहते हैं कि स्त्री कोई भी बात अपने हृदय में रख नहीं सकती । तेरी सखी चतुर होने पर भी आखिरकार है तो एक स्त्री ही। हम इस प्रकार जाना चाहते हैं कि किसी को कुछ ज्ञात न हो सके। कुछ कल्पना भी न कर सके। और तेरे अलंकरण लेने के लिए तेरी सखी गई है। जातेआते यदि उसे किसी ने देख लिया तो क्या होगा ? देख, मैंने पर्याप्त आभूषण साथ में ले लिये हैं, तू चिंता किए बिना मेरे पीछे-पीछे आ जा......" वैसा ही हुआ। दोनों चल पड़े। दोनों यमुना नदी के तट पर पहुंच गए। इस घाट पर धनदेव सेठ की कुछेक नौकाएं पड़ी रहती हैं। उनमें से एक सुखद नौका का चुनाव कर पद्मदेव और तरंगलोला-दोनों उसमें बैठ गए। आभूषणों की पेटी एक ओर रखकर, पद्मदेव ने नौका को यमुना नदी के प्रवाह में प्रस्थित किया। प्रवास से पूर्व दोनों ने इष्टदेव का स्मरण किया। किन्तु बाईं ओर नदी के किनारे कुछ सियार बोलने लगे। आवाज कर्कश और कर्णकटु थी। पद्मदेव ने नौका की गति को मंद कर नौका को रोकते हुए कहा-'शकुन अच्छे नहीं हुए हैं। अच्छे शकुन की प्रतीक्षा करनी होगी।' नौका पानी में स्थिर थी, फिर भी यमुना की तरंगों से वह ऊंची-नीची होने लगी और पानी भी उछल-उछल कर नौका में आने लगा। पद्मदेव ने नौका को चलायमान किया। ___ एकाध कोस चलने के पश्चात् नौका की गति तीव्र हुई...... यमुना भी प्रशान्त दीखने लगी और प्रवास की निर्विघ्नता और निर्भयता की कल्पना कर पद्मदेव ने प्रेमभरे स्वरों में कहा-'प्रिये! जन्मान्तर के दीर्घ वियोग के पश्चात् हमारा पुनः मिलन हुआ है, यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है। यदि चित्रांकन नहीं हो पाता तो हम कभी भी नहीं मिल पाते.... क्योंकि पूर्वभव के हम दोनों के रूप बदल चुके हैं-कहां तो पक्षी का भव और कहां मनुष्य का भव। तरंग! तूने ये चित्रांकन प्रस्तुत कर मेरे जीवन को धन्य बना डाला...' उनको देखे बिना पूर्वभव की स्मृति कैसे होती और कैसे होता यह मिलन?' तरंगलोला प्रियतम के शब्दों से अपूर्व सुख की अनुभूति कर रही थी...... परन्तु स्त्री-सुलभ लज्जा के कारण कुछ बोल नहीं सकी। पूर्वभव का अनुराग / १०९
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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