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तत्काल ब्राह्मणदेव को नमस्कार किया..... उस समय उसके हाथ की चूड़ियां मानो हाथ से स्खलित होकर गिर पड़ेंगी, ऐसी स्थिति बन गई। वह विनम्र स्वरों में बोली-'महाराज! आपको भी नमस्कार।' इतना कहकर वह खड़ी होकर बोली-'मैं तो डर गई..... सर्प को देखकर जितनी घबराहट होती है, वैसी ही घबराहट हुई।'
'अरे! सुंदरी! तू मुझे सर्प कहती है?' 'क्षमा करें महाराज! मैंने आपको सर्प नहीं कहा है।'
'वाह! तू तो चालाक औरत है। मुझे सर्प कहकर भी मुकर जाती है। तुझे यह ज्ञात होना चाहिए कि मैं उच्चकुल का ब्राह्मण हूं। मेरे पिता हरित् गोत्र के काश्यप हैं। मैं छांदोग्य संप्रदाय का हूं। तू मुझे पहचान लें।'
सारसिका की धड़कन बढ़ गई। वह धूजने लगी। इतने में ही पद्मदेव का ध्यान चित्र से हटा और उसने ब्राह्मण कुमार को कहा-'अरे पाजी! अपरिचित युवती को तू सता रहा है। अपनी बड़बड़ाहट बंद कर। तू मूर्ख है। चला जा यहां से। क्यों आया मेरे खंड में?'
पद्मदेव की यह डांट-फटकार सुनकर वह ब्राह्मण युवक सारसिका की ओर घूरता हुआ खंड से बाहर चला गया।
सारसिका ने सुख की सांस ली।
पद्मदेव बोला-'ओह! सुंदरी। क्षमा करना। तुम कहां से आई हो? किस प्रयोजन से आई हो? तुम कौन हो?'
___ सारसिका ने प्रसन्न स्वरों में कहा-'कुलभूषण श्रेष्ठपुत्र! मैं एक संदेश लेकर आई हूं। नगरसेठ ऋषभसेन की देवकन्या तुल्य पुत्री तरंगलोला ने एक संदेश भेजा है। तरंगलोला ने जो चित्रांकन किए थे, उनकी सफल संयोजना से उसके मन में एक आशा की लहर उभरी है। पूर्वभव के स्नेहबंधन को और अधिक गाढ़ करने के लिए वह इस भव में आपका सान्निध्य चाहती है। आप अपना हाथ उसे दें। तरंगलोला ने एक संदेश भेजा है.....' यह कहकर सारसिका ने अपने उत्तरीय के अंचल में बंधे संदेश को पद्मदेव के हाथों में सौंपते हुए कहा-'कुमारश्री! संदेश का मर्म इस पत्र को पढ़कर आप समझ लें।'
इतना सुनते ही पद्मदेव की आंखों से अश्रुधारा बह चली। उसका हृदय कांप उठा। उनके हृदय में छिपे स्नेह को सारसिका देख रही थी।
आंसुओं के वेग के कारण पद्मदेव बोल नहीं सका। वह तरंगलोला का पत्र खोलकर पढ़ने लगा। सारसिका पद्मदेव को गौर से देख रही थी। पत्र पढ़ते समय उसके मनोभावों के उतार-चढ़ाव को उसने आंका। पद्मदेव ने पत्र पढ़कर कहा-अब विस्तार से कुछ जानने को शेष नहीं रहा है। परन्तु मेरी क्या दशा है, तू संक्षेप में जान ले। यदि तू आज यहां नहीं आती तो मैं मध्याह्न के बाद जीवित नहीं रहता...... तू उचित समय पर आई है....... तेरे कथन के अनुसार तथा पत्र के
पूर्वभव का अनुराग / १०१