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निर्देश है।49 षट्खण्डागम में अवग्रह, अवधान, अवलम्बना, और मेधा ये शब्द अवग्रह के लिये प्रयुक्त हुए है।50
अवग्रह के दो अन्य प्रकार उपलब्ध होते हैं- नैश्चयिक और व्याहारिक।
(1) नैश्चियिक अवग्रह- यह एक समय में होनेवाला वस्तु का प्राथमिक अवबोध है।
(2) व्यावहारिक अवग्रह-निश्चय के बाद ईहा और अवाय होता है। नैश्चयिक अवग्रह का अवाय रूप व्यवहारिक अवग्रह का आदि रूप बनता है।
ईहा- ईहा का अर्थ है-वितर्क। 'यह अमुक का शब्द होना चाहिये', ऐसी वितर्कमूलक ज्ञान चेतना ईहा कहलाती है। अवग्रह के पश्चात् ज्ञान ईहा में परिणत हो जाता है। यहां स्पष्ट रूप से इन्द्रियों के साथ मन का व्यापार जुड़ जाता है।
'कुछ है' से 'शब्द होना चाहिये तक की ज्ञान -प्रक्रिया ईहा है। ईहा और संशय में अन्तर है ?
संशय में दोनों पक्ष समान होते हैं। ज्ञान का झुकाव किसी एक ओर नहीं होता। ईहा में ज्ञान एक ओर झुक जाता है। ईहा में पूर्ण निर्णय या निश्चय नहीं होता फिर भी मन का झुकाव निर्णय की तरफ अवश्य होता है जबकि संशय में निर्णय की स्थिति बनती है। धवला में भी कहा है कि ईहा ज्ञान संदेह रूप नहीं है।51 अनेक अर्थों के आलम्बन से आन्दोलित चेतना संशय है। जबकि ईहा असद्भूत का त्याग, सद्भूत का ग्रहण करने वाली जागृति है।
इन्द्रियों से प्राप्त विषय पर मन किस प्रकार से विमर्श करता है। इस विषय में नंदीसूत्र में इसके एकार्थक पांच नाम बतलाये हैं।52
(1) आभोगनता- अवग्रह के पश्चात् विशेष अर्थ की आलोचना। (2) मार्गणता- मार्गणा अर्थात् खोजना। आभोगनता की अग्रिम भूमिका है। (3) गवेषणा- स्वभावजन्य, प्रयोगजन्य, नित्य-अनित्य आदि का चिंतन। (4) चिंता- अन्वयी धर्मों का बार-बार चिंतन।
(5) विमर्श- उपरोक्त चार अवस्थाओं से प्राप्त अर्थ का नित्य-अनित्य आदि धर्मों के साथ विमर्श करना।
क्रिया और मनोविज्ञान
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