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(3) निदान
सुख के लिये उत्कट अभिलाषा या उसके लिये प्रार्थना करना । (4) स्मृति - संस्कार के जागरण से होने वाला संवेदन स्मृति है। हमने किसी वस्तु या व्यक्ति को देखा, वह चला गया । व्यक्ति के उपस्थित न रहने पर भी उसके संस्कार बने रहते हैं। कालान्तर में उस प्रकार की कोई वस्तु को देखकर पूर्वानुभूत संस्कार जागृत हो जाते हैं, वह स्मृति कहलाती है।
(5) जाति स्मृति - पूर्व जन्म की स्मृति । पूर्व दृष्ट, श्रुत, अनुभूत विषयों की स्मृति । श्या की विशुद्धि और चित्त की एकाग्रता होने पर जाति स्मृति ज्ञान उत्पन्न होता है। (6) प्रत्यभिज्ञा – अतीत और वर्तमानकालीन वस्तु की एकता से उत्पन्न ज्ञान।
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(7) कल्पना इच्छा और अभिलाषा की अभिव्यक्ति।
मानसिक रूचि। ध्येय के प्रति सघन निष्ठा ।
( 8 ) श्रद्धान
(9) लेश्या - भावधारा जनित मानसिक परिणाम |
( 10 ) ध्यान - मानसिक एकाग्रता । संकल्प-विकल्पों की भीड़ व्यग्रमन की देन है । व्यग्रता का एकाग्रता में रूपान्तरित हो जाना ही ध्यान है।
मन का कार्य
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नन्दिसूत्र के चूर्णिकार देववाचक ने दीर्घकालिक संज्ञा के छः कार्यों का निर्देश किया है। प्रकारान्तर से ये मन के कार्य हैं। 21
1 ) ईहा - सत् पदार्थ का पर्यालोचन । शब्द आदि के अर्थ के विषय में अन्वय और व्यतिरेक धर्मों से विचार करना ।
2 ) अपोह - अन्वयी धर्मों का निश्चय करना । जैसे - यह शब्द है ।
3 ) मार्गणा - अन्वयी धर्मों का अन्वेषण । जैसे - यह शब्द शंख का है।
4) गवेषणा - व्यतिरेक धर्मों का स्वरूपावलोकन |
5) चिन्ता - यह कार्य कैसे करना चाहिये ? कैसे हुआ ? कैसे होगा ? आदि का
चिन्तन ।
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6) विमर्श - यह कार्य इस प्रकार हो सकता है। इसी प्रकार हुआ है, अथवा इसी प्रकार होगा। यह निर्णय विमर्श कहलाता है।
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया