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अष्टम अध्याय
क्रिया और मनोविज्ञान
मानव जीवन की प्रवृत्तियों के संचालन हेतु एक क्रियातंत्र है। उसके मुख्य तीन अंग है- शरीर, वाणी और मन । मन क्रिया तंत्र का एक हिस्सा है। यह कर्मचारी की तरह कार्य करता है । चित्त चेतना है । मन जड़ है । चित्त और मन में मालिक - नौकर जैसा सम्बन्ध है। मालिक नौकर से जब चाहे काम ले सकता है। नौकर की अपनी कोई इच्छा नहीं। उसका अस्तित्व मालिक की इच्छा पर निर्भर है। चित्त में जैसे संस्कार संचित हैं, मन उसी के अनुसार कार्य करता है । चित्त के निर्देशों की क्रियान्विति करना मन का प्रमुख कार्य है। मन स्थायी तत्त्व नहीं, वह चेतना से सक्रिय होता है। चेतना का क्रियात्मक अस्तित्व ही मन है।
जैन दर्शन में मन और उसके कार्य
इन्द्रियां बाह्य पदार्थ के सम्बन्ध में पर्यालोचन का माध्यम है। उस पदार्थ के विषय में हा-अपोह आदि विशेष विमर्श तथा वाच्य वाचक सम्बन्ध - ज्ञप्ति के लिये जिस साधन की अपेक्षा होती है उसका नाम है- मन ।
मन की परिभाषा
'मननं मन्यते अनेन वा मन:' इस व्युत्पत्ति के आधार पर मनन करने वाला मन होता है। जिसके द्वारा मनन किया जाता है, वह मन है। मनन के समय मन होता है। मनन से पहले या पीछे मन नहीं होता।' भगवती में भी कहा गया- 'मणिज्जमाणे मणे' 2 अर्थात् मन एक है किन्तु उसकी व्याख्या तीन आधारों पर की जा सकती है । 3
क्रिया और मनोविज्ञान
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