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उद्योत
चन्द्रादीनामनुष्णः प्रकाश उद्योतः।'51 चन्द्रमा, जुगनू आदि का शीतल प्रकाश उद्योत कहलाता है। जिसमें ताप का पूर्ण अभाव या अल्प मात्रा होती है, उसे उद्योत कहते है।
इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने प्रकाश को दो रूपों में विभक्त किया है- आतप और उद्योत। वैज्ञानिकों ने प्रकाश को गतिशील माना है। ब्रह्माण्ड में घूमने वाले आकाशीय पिण्डों की गति, दूरी आदि को मापने का मानदण्ड प्रकाश-किरण को स्वीकार किया है। उसकी गति सदा समान रहती है। प्रकाश को पहले भारहीन पदार्थ के रूप में देखा जाता था। अब सिद्ध हो चुका है कि वह शक्ति का भेद होने पर भी भारयुक्त है।
जीव और अजीव में होने वाले परिणमन भी तीन-तीन प्रकार के हैं1. वैनसिक परिणमन
उल्कापात आदि 2. प्रायोगिक परिणमन
जीवच्छरीर 3. मिश्र परिणमन
मृत शरीर 1. वैनसिक परिणमन
विस्रसा-स्वभाव: प्रयोग निरपेक्षो विस्रसाबंधः। प्रयोग निरपेक्ष परिवर्तन को विस्रसा कहा जाता है यह वस्तु में स्वतः होता है। अप्रयत्नजन्य परिणमन- जैसे आकाश में बादलों की घटा का बनना, मिट्टी के लाखों-करोंड़ों कणों का मिलकर पत्थर या चट्टान बन जाना, वैस्रसिक परिणमन है। ये स्वाभाविक रूप से बनते है। इन्हें बनाने का किसी द्वारा कोई प्रयत्न नहीं रहता। 2.प्रायोगिक परिणमन
प्रयत्नजन्य परिणमन प्रायोगिक है, जैसे - दो कपाटों को मिलाना। दो कपड़ों के टुकड़े को परस्पर जोड़ना। इसमें जीव का प्रयत्न काम आता है। जीव के संयोग से परिणमन को प्राप्त प्रयोग परिणत है। इसी प्रकार इन्द्रिय, शरीर, रक्त, आदि का निर्माण प्रायोगिक परिणमन है। शरीर आदि की संरचनाजीव के प्रयत्न से होती है। 53 सिद्धसेनगणी ने प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार किया है। अकलंक ने 'पुरूषकायवाङ् मनः संयोगलक्षण:' कहकर प्रयोग का अर्थ पुरूष का शरीर, वाणी और मन का संयोग
क्रिया और परिणमन का सिद्धांत
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