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षष्ठम अध्याय क्रिया और परिणमन का सिद्धांत
विश्व-व्यवस्था की व्याख्या का ध्रुव सिद्धांत है- परिणमन। परिणमन का अर्थ स्थाई रहते हुए परिवर्तित होना है। सृजन, विकास और प्रलय का आधार परिणमन का सिद्धान्त ही है। परिणमन का अर्थ एवं स्वरूप
क्रिया तथा परिणमन दोनों में शब्द भेद है, अर्थ-भेद नहीं। शब्द कोश की दृष्टि से पर्याय, परिणमन, गति, क्रिया एकार्थक हैं। परिणमन के मुख्यत: तीन अंग हैं -उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य। परिणमन की अनिवार्यता
- अस्तित्व में परिवर्तित होने की क्षमता है। अर्थक्रियाकारित्व पदार्थ का सर्वमान्य लक्षण है। जो सतत क्रियाशील है, वही सत् है। यद्यपि भारतीय दर्शन का अस्तित्ववादी चिन्तन कूटस्थ नित्यवाद एवं क्षणिकवाद- इन दो तटों के बीच प्रवाहित होता रहा है। कोई विचारधारा परिणमन को मानती है, कोई नहीं मानती। जैन दर्शन ने इन दोनों को समन्वित करते हुए परिणामी -नित्यवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। प्रत्येक पदार्थ को स्थाई मानते हुए भी परिवर्तनशील माना। इस सिद्धांत में नित्येकान्त और अनित्येकान्त विचारधारा का समन्वय होने से व्यापकता का दर्शन होता हैं। वस्तु जगत् में भी एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य वस्तु किसी भी प्रकार से क्रिया करने में समर्थ नहीं है। एकान्त नित्य वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। क्षणिकवाद के आधार पर भी वस्तु में देशगत और कालगत दोनों ही रूपों में क्रिया संभव नहीं है। इसलिये एकांत नित्यता और एकांत अनित्यता वस्तु का स्वरूप नहीं हो सकती। आचार्य हेमचन्द्र लिखते है- अनर्थक्रियाकारित्वाद वस्तुत्व प्रसंग:-इत्येकान्तनित्यात् क्रमाक्रमाभ्यां क्रिया और परिणमन का सिद्धांत
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