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(प्रमेयकमलमार्तण्ड-4/10, पृ. 600)। द्रव्यस्य भावो द्विविधः परिस्पन्दात्मकः, अपरिस्पन्दात्मकश्च। तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रिया इत्याख्यायते, इतर: परिणामः (राजवार्तिक-5/22/21)। परिस्पन्दात्मको द्रव्यपर्याय: संप्रतीयते। क्रिया
देशान्तरप्राप्तिहेतुः (त. श्लोकवार्तिक-5/22/39)। 71. पंचाध्यायी -2/25, (त. श्लोकवार्तिक- 5/7 पर श्लोक. 2, पृ.-45 शोलपुर सं.)। 72. पंचाध्यायी-2/24-27, 73. राजवार्तिक -5/7/1, त. श्लोकवार्तिक-5/7, 74. धर्माधर्मी परिस्पन्दलक्षणया क्रिया निष्क्रियौ. सकलजगद्-व्यापित्वाद् आकाशवत्।
परिणामलक्षणया तु क्रिया सक्रियौ एव, अन्यथा वस्तुत्वविरोधात् (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
5/7)। 75. त. श्लोकवार्तिक-5/7, 76. त. श्लोकवार्तिक-5/22 (पृ. 418 मुम्बई संस्करण)। 77. त. श्लोकवार्तिक- 5/7 पर श्लोक-9, 78. द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्राधान्यात् सर्वे भावा उत्पादव्ययदर्शनात् सक्रिया अनित्याश्च
(त. राजवार्तिक- 5/7/25), पंचास्तिकाय. 21 व टीका, 79. पर्यायार्थिकगुणभावे द्रव्यार्थिकप्राधान्यात् सर्वे भावा अनुत्पादव्ययदर्शनात् निष्क्रिया
नित्याश्च (त. राजवार्तिक- 5/7/25)। पंचाध्यायी-ख/247, स्याद्वादमंजरी, का.
23, पृ. 204-205, / 80. क्रियानिमित्त-उत्पादाभावेऽपि एषां धर्मादीनाम् अन्यथा उत्पाद: कल्प्यते। तद्यथा- द्विविध
उत्पादः। स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च। स्वनिमित्तस्तावत् अनन्तानाम् अगुरुलघुगुणानाम् आगमप्रामाण्याद् अभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च वर्तमानानां स्वभावादेषाम् उत्पादो व्यश्च। परप्रत्ययोऽपि अश्वादेः गतिस्थितिअवगाहनहेतुत्वात्, क्षणे क्षणे तेषां भेदात् तद्धेतत्वमपि भिन्नम् -इति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवह्रियते (त. राजवार्तिक-5/7/3)। षट्स्थानपतितवृद्धिहानिपरिणतस्वरूप- प्रतिष्ठत्वकारण-विशिष्टगुणात्मिका,
अगुरुलघुत्वशक्तिः (समयसार-आत्मख्याति, कलश- 263 पर)। 81. द्र. गोम्मटसार, जीवकाण्ड आदि।
प्रो. दामोदर शास्त्री प्रोफेसर, जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन विभाग जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय लाडनूं- 341 306 (नागौर, राजस्थान)
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