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अनौपक्रमिक निर्जरा अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है क्योंकि यह भव चक्र से मुक्ति दिलाने में सहायक सिद्ध नहीं होती।
___ अकाम निर्जरा प्राणी मात्र के होती है। यह सर्व मान्य सिद्धांत है। इस सम्बन्ध में कोई मतभेद नहीं। सकाम निर्जरा के विषय में मतैक्य नहीं है। हेमचन्द्रसूरि की धारणा में सकाम निर्जरा योगियों - संयमियों के ही होती है, अन्य प्राणियों के नहीं।76
स्वामी कार्तिकेय भी इसी मत का समर्थन करते हैं। एक मत यह भी है कि सकाम निर्जरा सम्यक् दृष्टि के संभव है, मिथ्यादृष्टि के नहीं। इस विषय में आचार्य भिक्षु का चिन्तन भिन्न है। उनके अनुसार सकाम निर्जरा के अधिकारी साधु, श्रावक, व्रती, अव्रती, सम्यक्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि सभी हो सकते हैं। शर्त इतनी ही है कि निर्जरा का साधन निरवद्य और साध्य (लक्ष्य) कर्म-क्षय होना चाहिये। आचार्य भिक्षु ने इसे उदाहरण से स्पष्ट किया है
___एक स्त्री पति के दिवंगत होने पर विधवा है अथवा पति के द्वारा त्यक्त है। ऐसी स्थिति में वह शरीर का परिकर्म नहीं करती। साज-सज्जा से विरक्त है। रसों का सेवन नहीं करती। ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करती है। उससे अल्प मात्रा में कर्मक्षय होता है किन्तु वह अकाम निर्जरा है क्योंकि उसका लक्ष्य मोक्ष नहीं है। कोई व्यक्ति यश, कीर्ति, श्लाघा लौकिक अभ्युदय, स्वर्गादि की प्राप्ति के लिये तपस्या करता है उसके भी अकाम निर्जरा होती है क्योंकि उसका भी लक्ष्य मोक्ष नहीं, इहलौकिक-पारलौकिक सिद्धि प्राप्ति का है।
आचार्य भिक्षु लौकिक अभ्युदय के लिये तपस्या के पक्षधर नहीं थे। उनका मानना था कि जैसे अनाज के पीछे तूड़ी या भूसा सहज प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार उच्च लक्ष्य से की गई तपस्या से अभ्युदय स्वत: निष्पन्न होता है।
अभव्य की साधना बाह्य दृष्टि से होती है, इसलिए वह भी अकाम निर्जरा है जैसे व्यक्ति का ऐहिक लक्ष्य और मिथ्यात्व विराधना की कोटी में आता हैं वैसे तपस्या विराधना की कोटी में नहीं आती। लक्ष्य ठीक नहीं होने से इस प्रकार की तपस्या हेय है, मूलत: नहीं। दशवैकालिक का प्रकरण इस तथ्य का संवादी प्रमाण है।78
विविह गुण तवोरए य निच्चं, भवइ निरासइ निज्जरहिए। तवसा धुणइ पुराण पावगं, जुत्तो सया तव समाहिए।। न वर्तमान जीवन की भोगविलाषा, न पारलौकिक भागोभिलाषा, न कीर्ति,
क्रिया और अन्तक्रिया
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