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(5) योग आश्रव-योग का अर्थ प्रवृत्ति या क्रिया है। शरीर, भाषा और मन की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति रूप आत्म-परिणति का नाम योग आश्रव है। मन, वचन, काया के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में परिस्पंदन होता रहता है। योग जन्य चंचलता का नाश होने पर ही मुक्ति संभव है। कषाय और योगआश्रव के दो आधारभूत स्तंभ है। अशुभयोग से अशुभ कर्म का बंध होता है और शुभयोग से शुभकर्म का। योग का सर्वथा निरोध होने से अयोग संवर अथवा शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है। इसके अनन्तर जीव मुक्त हो जाता है।
सकषायी जीवों के साम्परायिक आश्रव और अकषायी के ईर्यापथ आश्रव होता है। चतुर्गति रूप संसार का नाम सम्पराय है। संपराय जिस आश्रव का प्रयोजन हो, वह साम्परायिक आश्रव है। ईर्यापथ का अर्थ- 'ईरणं ईर्या-आगमानुसारिणी गति : सैव पन्थाः मार्ग : प्रवेशे यस्य कर्मणः तदीर्यापथम्', आगम विधि के अनुसार जो गमन होता है, वह ईर्या है। ईर्या जिस कर्म के आगमन का द्वार है, वह ईर्यापथ कर्म है। उसमें ईर्या को कारण माना है। ईर्यापथ आश्रव केवल योग से होता है, कषाय से नहीं। सकषायी जीवों के कर्म बंध समान नहीं होता। तीव्र, मंद, मध्यम, ज्ञात, अज्ञातभाव, अधिकरण विशेष और वीर्य विशेष से कर्मों का आश्रव भी अलग-अलग स्तरों पर होता है। जीवों के परिणाम एक रूप नहीं होते इसलिये उनके द्वारा कर्मों का बंध भी अनेक प्रकार का माना गया है। तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम भावों के कारण आश्रव की भी तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम अवस्थाएं होती हैं। स्थिति बंध में भी इसी प्रकार अंतर हो जाता है।
कषायों की मंदता से जो भाव होते हैं, वे मंद भाव हैं। इनमें भी मंद, मंदतर, मंदतम विभाग हैं। आश्रव की भी यही स्थिति होती है। तीव्र भावों से जिस प्रकार आश्रव में तीव्रता आती है और मंद भावों से मंदता, उसी प्रकार जो परिणाम न तीव्र हो और न मंद, मध्यम स्थिति में हो तो आश्रव भी मध्यम स्थिति वाला होता है। मध्य के भी मध्य, मध्यतर, मध्यतम- तीन स्तर बनते है। ज्ञातभाव- ज्ञात नाम आत्मा का है। ज्ञानयुक्त आत्मा के परिणाम ज्ञातभाव हैं। जैसे कोई व्यक्ति स्वेच्छा से प्रेरित हो प्राणातिपातादि अशुभ कार्यों में प्रवृत्त होता है। उसका वह परिणाम ज्ञातभाव है। ___ अज्ञातभाव प्रमाद या अज्ञानवश होने वाली प्रवृत्ति अज्ञातभाव है। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न लब्धि का नाम वीर्य है। शक्ति, सामर्थ्य, प्राण- ये सब एकार्थक हैं। इनकी स्पष्ट रूप से अभिव्यक्ति वज्रऋषभनाराच संहनन वाले त्रिपृष्ठ वासुदेव में तथा बलिष्ठ सिंहादि के द्वारा विदारण क्रिया करते समय होती है। वीर्य के जैसा ही वीर्य-विशेष क्रिया और अन्तक्रिया
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