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2. कितने ही कर्म ऐसे होते है जो शुक्ल होते है और शुक्ल विपाकी होते हैं। 3. कितने ही कर्म कृष्ण-शुक्ल मिश्र होते है, वैसे ही विपाक वाले होते हैं। 4. कितने ही कर्म अकृष्ण-शुक्ल होते है और अकृष्ण-शुक्ल विपाकी होते हैं।
पुण्य का फल पुण्य एवं पाप का फल पाप-ये दो विकल्प निर्विवाद हैं, बुद्धि गम्य हैं, स्वाभाविक हैं। पुण्य का विपाक पाप और पाप का विपाक पुण्य- ये दो विकल्प सहज बुद्धि गम्य नहीं हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ के अभिमत में जाति परिवर्तन कर्मवाद का बहुत बड़ा रहस्य है। इसके आधार पर परिवर्तन का सिद्धांत निस्संदेह सत्य है। पुण्य बंध होता है, उसमें सारे कर्म-परमाणु पुण्य रूप होते हैं किन्तु बाद में ऐसा पुरूषार्थ किया जाता हैं जिससे पुण्य पाप में परिवर्तित हो जाता है, सुख के हेतु हैं, वे दुःख के हेतु बन जाते हैं। इसी प्रकार सत् पुरूषार्थ से पाप के परमाणु पुण्य में बदल दिये जाते हैं। 126 जैन दर्शन में मान्य संक्रमण का सिद्धांत इसी पुरुषार्थ की मूल्यवत्ता को प्रतिष्ठित करता है। कुछ स्थितियां ऐसी हैं, जहां संक्रमण का सिद्धांत लागू नहीं होता है। उनका निर्देश पूर्व में किया जा चुका है।
भगवती सूत्र का प्रसंग भी कर्म-परिवर्तन का संवादी है। गौतम ने पूछा- भंते ! जीव एवंभूत वेदना वेदते हैं अथवा अनेवंभूत वेदना ?
महावीर ने कहा- गौतम ! जीव एवंभूत वेदना का अनुभव भी करते हैं और अनेवंभूत वेदना का भी। एवंभूत का अर्थ है- कर्मों का जिस रूप में बंधन किया था, उसी रूप में भोगना। अनेवंभूत का अर्थ है- कर्मों को अन्यथा करके भोगना। 127
विशेषावश्यक भाष्य में कर्म ग्रहण को जीव के आधीन माना है और फल भोग के संदर्भ में जीव की पराधीनता बतलाई है128 किन्तु यह कथन सार्वभौम नहीं है। कर्मों के दो प्रकार हैं-निधत्त और निकाचित। निधत्त कर्म परमाणुओं में सदा परिवर्तन की संभावना रहती है। इस प्रकार के कर्मों के फल भोग में जीव स्वतंत्र है। निकाचित कर्मों के भोग में जीव परतंत्र हो सकता है। अथवा प्रदेशोदय की दृष्टि से परतंत्र और विपाकोदय की दृष्टि से स्वतंत्र है। इन कर्म शास्त्रीय रहस्यों के उद्घाटन के लिए स्वतंत्र अनुसंधान की अपेक्षा है।
इस प्रकार व्यक्ति जो भी प्रवृत्ति करता है, उससे कर्म बंध होता है। प्रवृत्ति का फलेत है - कर्मों का अर्जन। क्रिया और कर्म का अविनाभावी सम्बन्ध है। प्रत्येक क्रिया
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया