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कर्म-स्थिति और रस का तीव्रीकरण होता है।114 यह कर्म बंध के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता-मंदता पर आधारित है।
(6) अपवर्तना-बद्ध कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग को अध्यवसाय विशेष से कम कर देना अपवर्तना है।115 धवला में कहा-कर्म प्रदेशों की स्थिति के अपवर्तन का नाम अपकर्षण है।116 उद्वर्तना और अपवर्तना की विवेचना से इस धारणा का निरसन हो जाता है कि स्थिति एवं अनुभाग में परिवर्तन नहीं हो सकता है। परिवर्तन प्रयत्नविशेष और अध्यवसाय की शुद्धता-अशुद्धता पर निर्भर है।
(7) संक्रमण- एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चले जाना क्षेत्र संक्रमण है। एक ऋतु के बाद दूसरी का आना काल-संक्रमण है। उसी तरह कर्म जगत् में भी संक्रमण होता है। सजातीय कर्म-प्रकृतियों का परस्पर परिवर्तन संक्रमण कहलाता है।117 जिस अध्यवसाय से जीव कर्म-प्रकृति का बंध करता है, उसकी तीव्रता के कारण पूर्वबद्ध सजातीय प्रकृति के दलिकों को बध्यमान प्रकृति के दलिकों के साथ संक्रांत कर देता है, यही संक्रमण है। उसका सामान्य नियम है कि संक्रमण किसी मूल प्रकृति की उत्तर प्रकृतियों में ही होता है, अन्य कर्म की उत्तर प्रकृतियों में नहीं होता। संक्रमण सजातीय में संभव है, विजातीय में नहीं। यहां यह ध्यातव्य है कि आयुष्य कर्म की चार प्रकृतियों में तथा मोहनीय कर्म की दोनों प्रकृतियों- दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय में परस्पर संक्रमण नहीं होता। दर्शन मोहनीय की तीन उत्तर प्रकृतियों में भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। संक्रमण के भी चार प्रकार हैं- 1. प्रकृति संक्रमण 2. स्थिति संक्रमण 3. अनुभाग संक्रमण 4. प्रदेश संक्रमण। ___1. प्रकृति संक्रमण-कर्म की किसी प्रकृति का अन्य प्रकृति में परिवर्तन प्रकृति संक्रमण है। कर्म की आठ मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता। प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है। वह भी सजातीय में होता है, यह ध्रुव नियम है। उदाहरणार्थ-मति ज्ञानावरण का श्रुत ज्ञानावरण में रूपान्तरण होता है किन्तु दर्शनावरण की उत्तर प्रकृतियों के साथ मति ज्ञानावरण का संक्रमण नहीं होता। मति ज्ञानावरण का श्रुतज्ञानावरण में परिवर्तन होने पर उसका फल भी श्रुत ज्ञानावरण के अनुरूप ही होता है।
2. स्थिति संक्रमण-कर्मों की स्थिति में परिवर्तन स्थिति संक्रमण है। स्थिति का कम या ज्यादा होना क्रमश: अपवर्तना-उद्वर्तना कहलाती है। ये भी समान जातीय में ही संभव हैं।
क्रिया और पुनर्जन्म
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