________________
भगवान महावीर - जैसे कोई मनुष्य मनोज्ञ, स्थालीपाक, शुद्ध, अठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण, औषध - मिश्रित भोजन करता है, वह आपातभद्र नहीं लगता किन्तु परिणमन होने पर उसमें सुरूपता, सुवर्णता और सुखानुभूति उत्पन्न होती है। वह परिणामभद्र होता है। कालोदायी ! उसी प्रकार प्राणातिपात विरति यावत् अठारह पापों से विरति आपातभद्र नहीं लगती किन्तु परिणामभद्र होती है। 32 प्राणी को उसके कर्मानुसार ही फल की प्राप्ति होती है | 33
मरते समय मनुष्य के दुःख का ज्ञातिजन, सगे-सम्बन्धी, मित्र-पुत्र, भाई कोई भी विभाग नहीं लेते। जीव अकेला ही भोगता है क्योंकि किया हुआ कर्म सदा अपने कर्ता का अनुगमन करता है। 34(क) उत्तराध्ययन में इस विषय में कहा है कि किए हुए कर्म को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता । जिस प्रकार चोरी करते समय पकड़ा हुआ चोर अपने कर्म के कारण दुःख भोगता है, उसी प्रकार जीव इहलोक और परलोक में अपने किए हुए कर्मों को भोगे बिना मुक्ति नहीं पा सकता | 34 (ख)
कर्म विपाक - जीव विपाकी, पुद्गल विपाकी, भव विपाकी, क्षेत्र विपाकी ऐसे चार प्रकार हैं
जीव विपाकी - जिन प्रकृतियों के उदय से जीव के स्वभाव पर सीधा प्रभाव पड़ता है, वह जीव विपाकी है।
पुद्गल विपाकी - शरीर पुद्गल से निर्मित है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित प्रकृतियां पुद्गल विपाकी है।
भव विपाकी - आयु कर्म की नरकादि चारों प्रकृतियों का विपाक भव विपाक है। क्षेत्र विपाकी - नरकादि आनुपूर्वी नामक चार कर्म - प्रकृतियां नरकादि की ओर ही जीव की गति कराती है। ये क्षेत्र से सम्बन्धित होने से क्षेत्र विपाकी हैं।
जैन दृष्टि में कर्म - फल की नियतता अनियतता
यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि जिन कर्मों का बंध हुआ, उनका फल निश्चित होता है या परिवर्तित (अन्यथा ) भी हो सकता है ? इस संदर्भ में जैन कर्म - सिद्धांत में कर्मों को दो भागों में विभक्त किया गया है- नियत विपाकी और अनियत विपाकी । कुछ कर्मों का फल निश्चित है। कुछ कर्मों का फल अनियत है। जिन कर्मों के बंधन में कषायों की तीव्रता होती है, उनका बंध प्रगाढ़ होता है। उनका फल भी नियत होता है। तात्त्विक शब्दावली में उन्हें निकाचित कर्म कहा जाता है।
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया
190
-