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अघाती कर्म- आत्मा के मूल गुणों को हानि नहीं पहुंचाने वाले किन्तु शुभाशुभ का संयोग कराने वाले वेदनीय, नाम, गोत्र, आयुष्य- ये चार अघाती कर्म हैं। आत्मा की स्वाभाविक दशा में विकृति उत्पन्न करना, उसके निजी गुणों की घात करना, घाती कर्मों का कार्य है। घाती कर्मों में प्रमुख मोहनीय कर्म है। कर्म बंध का मूलबीज यही एक कर्म है। अघाती कर्म घाती कर्म के सहयोगी हैं। अत: मोह के पराभूत होने पर शेष कर्मों का भी मूलोच्छेद हो जाता है।
अघाती कर्म दग्ध बीज के समान है जिनमें नया उत्पादन करने की क्षमता नहीं हैं। समय - परिपाक के साथ अपना फल देकर अलग हो जाते हैं। ये आत्म - गुणों के बाधक नहीं है। घाती कर्म की 45 प्रकृतियां भी दो भागों में विभक्त हो जाती है। देशघाती और सर्वघाती। सर्वघाती कर्म प्रकृति जहां आत्म- गुणों को समग्रता से आवृत या प्रभावित करती हैं वहां देशघाती उसके एकांश को।
अनन्तानुबंधी कषाय, सम्यक्त्व, अप्रत्याख्यानी,कषाय - देशवर्ती चारित्र, प्रत्याख्यानी कषाय - सर्वव्रती चारित्र, तथा 5 प्रकार की निद्रा, आत्मा की सहज सत्यानुभूति, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन ये बीस प्रकार की प्रकृतियां सर्वघाती हैं। शेष ज्ञानावरण की 4, दर्शनावरण की 3, मोहनीय की 13, अन्तराय की पांच, 4 + 3 + 13 + 5 = 25 कर्म प्रकृतियां देश घाती हैं। सर्वघाती आत्मगुणों के विकास की अवरोधक हैं किन्तु अस्तित्व का विनाश नहीं करती। अस्तित्व का नाश हो जाये तो आत्मा और जड़ का भेद समाप्त हो जायेगा। यही कारण है कि कर्मों के द्वारा ज्ञानादि गुणों के आवृत्त होने पर भी उनका न्यूनतम विकास तो सभी जीवों में रहता ही है। निष्कर्ष
__ कर्म सिद्धांत अतीत की क्रियाओं का लेखा जोखा प्रस्तुत करने के साथ - साथ वर्तमान की क्रियाओं की दिशा का निर्धारण करता है। इसके साथ ही भविष्यकालीन क्रियाओं के लिए भी दिशासूचक यन्त्र का कार्य करता है। व्यक्ति वार्तमानिक दु:खद जीवन की हेतुभूत क्रियाओं के प्रति सावधान बनता है और भविष्य को सुखद और शांतिपूर्ण बनाने के लिए संकल्पित होता है। इस प्रकार कर्म सिद्धांत की आचार और व्यवहार के निर्धारण में अहम भूमिका रहती है। कर्म सिद्धांत के आधार पर ही व्यक्ति में नैतिक-निष्ठा जागृत हो सकती है। स्पष्ट है कि कर्म - सिद्धांत के अनुसार वार्तमानिक मानसिक, वाचिक एवं कायिक कर्म अतीतकालीन कर्मों से प्रभावित होते हैं और अनागत को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले के अभिमत क्रिया और कर्म - सिद्धांत
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