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दान, लाभ आदि शक्तियों का ह्रास जिससे हो, वह अन्तराय कर्म है। वस्तुत: बाह्य वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति का कर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं हैं। कर्म का उदय-क्षयोपशम होने पर भी बाह्य वस्तु की उपलब्धि-अनुपलब्धि अनिवार्य नहीं है। ये परिस्थिति की अनुकूलता और प्रतिकूलता में हेतु बनते है। वस्तुतः इनका संबंध आन्तरिक शक्तियों के हनन या प्रकटीकरण से हैं। अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति 30 कोटाकोटी सागरोपम की हैं।103
उपर्युक्त कर्म-बंधन की हेतुभूत क्रियाओं की संक्षिप्त झलक निम्नांकित चित्रों द्वारा भी सरलता से समझी जा सकती है
आठ कर्म (1)
प्रोखीमान
बपरासी के समान दानवरलीव कर्म
वेबनीय-कर्म मधुलिप्त खड्ग कीधार के समान
मोहनीय-
सामानमान
गोर-कर्म र समान
रन्तराय-बर्म maa के समान
आठ कर्म (2)
क्रिया और कर्म - सिद्धांत
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