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मंत्र के लिंग के आधार पर तीन प्रकार किये गये हैं
1. पुरुष मंत्र - जिस मंत्र के अन्त में 'फट् या वषट्' हो, वह पुरुष मंत्र कहलाता है। 2. स्त्री मंत्र - जिसके अन्त में 'वौषट् या स्वाहा' हो, वह स्त्रीमंत्र है। 3. नपुंसक मंत्र - जिसके अन्त में 'हुं या नमः' हो, वह नपुंसक मंत्र कहा जाता है। अक्षरों की संख्या के अनुसार भी मंत्र कई प्रकार के होते हैं
पिण्डमंत्र - जिसमें एक अक्षर हो, वह पिण्ड मंत्र है।
कर्तरीमंत्र - जिसमें दो अक्षर हो, वह कर्तरी मंत्र है।
बीज मंत्र - तीन से 9 अक्षरों तक के मंत्र बीज मंत्र है।
मंत्र- 10 से 20 अक्षर वाले मंत्र कहलाते हैं।
मालामंत्र - बीस से अधिक अक्षर हो तो माला मंत्र कहा जाता है।
मंत्र जप की विधि
1. मंत्र के प्रति अटूट आस्था हो ।
2. साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है।
3. शारीरिक शुद्धि यानी, मन, वचन और कर्म से पवित्र रहें।
4. मंत्र जप के समय मेरूदण्ड सीधा रहे।
5. मन को एकाग्र रखें। चित्त वृत्तियों को इधर-उधर न जाने दें।
6.
मंत्र जप में निरन्तरता होनी चाहिये। दीर्घ जप ही शरीर और चेतना के बीच नई हलचल पैदा करता है।
श्वास हमारे मन का दर्पण है। माला प्रारंभ करते समय देखें कि कौनसे नासाग्र सांस आ रहा है। यदि दोनों नासाग्र खुले हैं तो बहुत ही उपयोगी है किन्तु यदि बायां स्वर चल रहा है तो तुरन्त माला शुरू कर देनी चाहिये ।
माला को यत्र-तत्र नहीं रखना चाहिये। एक दूसरे के बीच माला का आदान-प्रदान न हो। जिस माला से जाप करें उसे गले में न पहनें।
9.
मंत्र जप कामना रहित होना चाहिये।
10 जप में दीवार का सहारा या पैर लम्बा कर न बैठें।
11; जप नियमित और निर्धारित संख्या में होना चाहिये। जैसे
7.
8.
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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