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भगवती का निम्नोक्त संवाद उसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति है।226
गौतम-भंते ! केवली इस समय में जिन आकाश-प्रदेशों में हाथ, पाव, बाहूं को अवगाहित कर ठहरता है ? क्या वह भविष्य में भी उन्हीं आकाश-प्रदेशों में अवगाहित कर ठहर सकता है?
महावीर-गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। केवली में अनन्त शक्ति है। शक्ति की अभिव्यक्ति शरीर के माध्यम से होती है। शरीर से वीर्य की उत्पत्ति होती है। वीर्य से योग (मन, वचन, काया की प्रवृत्ति या चंचलता) और योग की प्रवृत्ति काय, वचन, मनोवर्गणा के पुद्गलों द्वारा होती है। केवली भी उसी आकाश प्रदेश पर हाथ-पैर आदि नहीं रख सकता। हेराक्लाइटस ने प्रवाह के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है, उन्होंने लिखा-'into the same river no man can enter twice, ever it flows in and flows out.' कोई भी आदमी दो बार उसी नदी में प्रवेश नहीं कर सकता, वह निरन्तर अंदर और बाहर बहती रहती है।227 यह प्रतिक्षण परिवर्तित होने का सिद्धांत शारीरिक चंचलता के समकक्ष ही है। जैसे उबलते पानी में निरन्तर कम्पन होते रहते हैं। वैसे ही सयोगी केवली के शरीर का सूक्ष्म संचालन निरन्तर होता रहता है। 228 भगवती में ऐर्यापथिकी और सांपरायिकी की चर्चा अनेक कोणों से की गई है।229 दोनों का भिन्न-भिन्न स्वरूप प्राप्त है। वहां ऐर्यापथिक के चार प्रकार और साम्परायिक क्रिया के दो प्रकार की चर्चा भी उपलब्ध है
(i) केवल काययोग से होनेवाला कर्म-बंध । (ii) अकषाय से होने वाला कर्म-बंध । (iii) यथासूत्र विचरण करने वाले के होनेवाला कर्म-बंध । (iv) संवृत्त और भावितात्मा के होने वाला कर्म-बंध । साम्परायिक क्रिया के प्रकार (i) कषाय से होने वाला कर्म - बंध। (ii) उत्सूत्र विचरण करने से होने वाला कर्म-बंध ।
ऐर्यापथिक क्रिया जीव के जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोनपूर्व कोटि काल पर्यन्त रहती है। सम्पराय का अर्थ है-संसार परिभ्रमण। जिस क्रिया से संसार का भ्रमण हो, वह साम्परायिकी है।230 'सम्परायाः कषायाः' कषायों के निमित्त से जो क्रिया हो, वह साम्परायिकी है। 98
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया