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(5)अनवकांक्षा प्रत्यया क्रिया (Disrespect for the Scriptural Teaching)
__आलस्य या प्रमाद वश स्व शरीर से नहीं करने अथवा शास्त्रोक्त विधि - व्यवहारों को नहीं करने से जो क्रिया लगती है, वह अनवकांक्षा प्रत्यया क्रिया है। इसका आशय है-स्व या पर शरीर से निरपेक्ष होकर किया जानेवाला, क्षति पहुंचाने वाला कर्म।200 तत्त्वार्थ सूत्र के व्याख्याकार का मत इससे भिन्न है। उनके अनुसार-शठता और आलस्य के कारण शास्त्रोपदिष्ट विधि-विधानों का अनादर करना।201 जिस प्रकार कोई भी समझदार व्यक्ति अपना वस्त्र मलिन करना नहीं चाहता। किन्तु एक कालावधि के बाद स्वयं मलिन हो जाता है। इसी प्रकार अनैच्छिक जो क्रिया होती है, वह अनवकांक्षा प्रत्यया क्रिया है। इसके दो प्रकार हैं-स्व-शरीर अनवकांक्षा, पर-शरीर अनवकांक्षा।
स्व-शरीर अनवकांक्षा- अपने शरीर का नाश करने वाले कार्यों के निमित्त से होने वाली क्रिया स्व-शरीर अनवकांक्षा है।
पर-शरीर अनवकांक्षा- दूसरे के शरीर को नष्ट करने वाले कार्यों के निमित्त से जो क्रिया होती है, वह पर-शरीर अनवकांक्षा है। पंचमक्रिया पंचक
(1) प्रेयस प्रत्यय क्रिया-माया और लोभ से होने वाली क्रिया प्रेयस प्रत्यया है। 202 माया और लोभ राग के लक्षण है। किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति स्नेहभाव राग है। कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से राग भाव उत्पन्न होता है। नारक से लेकर उच्चकोटि के देव भी राग भाव से उत्पन्न इस क्रिया से संपृक्त है।
राग क्रिया जीव है। राग क्रिया यदि व्याघात न हो तो छः दिशाओं का और व्याघात होने से कदाचित् 3,4,5 दिशाओं का स्पर्श करती है। यह क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं। यह क्रमपूर्वक की जाती है, अनुक्रम से नहीं।
नारक जीव राग-क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते है। यह क्रिया नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करती है। एकेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिक देव तक सभी दण्डकों में नारक की तरह ज्ञातव्य है। एकेन्द्रिय जीवों का सामान्य जीव के समान कथनीय है। रागप्रत्ययिकी क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्म बंध करता है जैसे प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्म-बंध करता है।
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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