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दो कर्म हैं-मोह कर्म और नाम कर्म । प्रमाद मोहकर्म का सूचक है और योग नाम कर्म का उनके अभिमत से प्रमाद का अर्थ मोहकर्म के उदय से होने वाली मूर्च्छा अथवा अशुभ व्यापार है। योग का तात्पर्य मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति है । 174
वीर्यदो प्रकार का है- क्रियात्मक और अक्रियात्मक । अपरिस्पंदनात्मक वीर्य का सम्बन्ध जीव से है। परिस्पंदनात्मक वीर्य शरीर से निष्पन्न है । उसी से मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियां संचालित होती है । 175 जहां प्रवृत्ति (क्रिया) है वहां कर्म - बंध अवश्यंभावी है। इस प्रकार कायिकी आदि क्रिया-पंचक और आरंभिकी आदि क्रियापंचक की क्रियाएं नारकी से वैमानिक देवों तक सभी दण्डकों में पाई जाती हैं।
तृतीय क्रिया-पंचक
तानिक्रिया
क्रिया
का आश्रवण होता रहता है। शरीर धारण और जीवन-यात्रा पातनिपाति
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्रिया से होता है। आत्मा में राग-द्वेषात्मक प्रकंपनों की विद्यमानता में कर्म-परमाणुओं
का निर्वहन कर्म (क्रिया) के अधीन है इसलिये क्रिया के अनेक प्रकारों का निरूपण स्वाभाविक है। तृतीय क्रियापंचक के अन्तर्गत निम्नोक्त क्रियाओं की समायोजना की गई है
दष्टिका क्रिया
स्पृष्टिका)
दृष्टिका और स्पृष्टिका क्रिया
इन दो क्रियाओं के स्थान पर तत्त्वार्थवार्तिक में दर्शन क्रिया एवं स्पर्शन क्रिया का नामोल्लेख है। स्थानांग वृत्ति के आधार पर लगता है कि इनकी अर्थाभिव्यंजना वृत्तिकार के समक्ष अस्पष्ट रही है। उन्होंनें इन दोनों के अनेक अर्थ किये हैं। उनके अनुसार दृष्टिजा अर्थात् दृष्टि से होने वाली क्रिया । दूसरा अर्थ दृष्टि का किया है- दृष्टि के निमित्त से होने वाली क्रिया अथवा वस्तु को देखने के निमित्त से जो क्रिया होती है। दर्शन के लिये जो गति क्रिया होती है अथवा दर्शन से जो कर्म का उदय होता है, वह दृष्टिजा या दृष्टिका कहलाती है। इसी प्रकार स्पृष्टिका के भी पृष्टिजा, पृष्टिका, स्पृष्टिजा और स्पृष्टिका ऐसे चार अर्थ किये हैं। 176 तत्त्वार्थवार्तिक में दर्शनक्रिया और स्पर्शन क्रिया का अर्थ बहुत स्पष्ट है।
दर्शन - क्रिया (Urges for Visual Gratification ) - राग के वशीभूत होकर प्रमादी व्यक्ति का रमणीय रूप देखना ।
स्पर्शन - क्रिया (Urges for Tactile Gratification) - प्रमाद वश छूने की प्रवृत्ति | 177
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया