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अप्रत्याख्यान मोह का उदय है। जिन जीवों में पूर्ण प्रत्याख्यान की क्षमता का उद्भव नहीं होता, उसका हेतु प्रत्याख्यान मोह का उदय है। तात्पर्य यह है कि मानसिक विकास और चारित्रमोह कर्म का क्षयोपशम- दोनों की युति होने पर ही आंशिक या पूर्ण प्रत्याख्यान की चेतना जागृत होती है। जैन दर्शनानुसार अप्रत्याख्यान की क्रिया तब तक चलती है जब तक सावध योग की पूर्णत: निवृत्ति नहीं हो जाती।
प्रश्न होता है कि जिनके मन-वचन-काया रूप प्रवृत्ति है, उनके पाप-कर्म का बंध गम्य है, किन्तु जो स्थाणु की तरह निश्चेष्ट हैं, उनके कर्म बंध कैसे होता है ?
__ जैनागमों के अनुसार कर्म-बंध का मूल कारण व्यक्त-अव्यक्त मन, वचन और काया नहीं अपितु अप्रत्याख्यान है। कर्म-बंध दो प्रकार से होता है- प्रवृत्तिजन्य एवं अनिवृत्ति रूप। एकेन्द्रिय जीवों के आश्रव द्वार खुले हैं। अत: उनके अनिवृत्ति रूप कर्मबंध होता रहता है। अविरति का चक्र रुकता नहीं है, वह स्वप्न में भी सतत रहता है। इसी कारण समनस्क या अमनस्क जीवों में प्रत्याख्यान चेतना का उदय नहीं होता, फलत: वे अविरत कहलाते हैं।
हमारे व्यक्तित्व के दो पक्ष है- बाह्य और आन्तरिक । बाहरी व्यक्तित्व की पहचान मन-वचन-काया जनित प्रवृत्तियों से होती है। आन्तरिक व्यक्तित्व का मानक है- आश्रव या चित्त । प्रवृत्ति रूप बाह्य व्यक्तित्व निष्क्रिय होने पर भी कर्म-बंध चालु रहता है। उसका कारण यह है कि मूल-स्रोत आन्तरिक व्यक्तित्व में है। इससे यह भी फलित होता है कि 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंध-मोक्षयोः' बंध और मुक्ति का कारण मन ही है-यह अवधारणा अंतिम सत्य नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार मन की प्रवृत्ति के अभाव में भी बंध होता है। इस विषय में नंदीसूत्र में वर्णित तीन प्रकार की संज्ञाओं का स्वरूप भी ज्ञातव्य हैं। वे हैं- हेतुवादोपदेशिकी, दीर्घकालिकी, दृष्टिवादोपदेशिकी। हेतुवादोपदेशिकी- गमन, आगमन करना। दीर्घकालिकी-जिसमें ईहा-अपोह विमर्श होता है। दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा-सम्यक् ज्ञान।
असंज्ञी जीवों में दीर्घकालिकी संज्ञा- तर्क, प्रज्ञा और मन इत्यादि का अभाव होता है। 125 हिंसा आदि का बोध दीर्घकालिकी संज्ञा वाले जीवों में ही संभव है। यद्यपि संज्ञी-असंज्ञी में अध्यवसायों का तारतम्य रहता है फिर भी कर्म-बंध का हेतु समान रूप से पाया जाता है। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक असंज्ञी जीवों में कोई प्राणी किसी भी योनि में जन्म लेने का कर्म-संचय कर सकता है। वह किसी योनि विशेष के साध प्रतिबद्ध नहीं है। अर्थात् मनुष्य मरकर मनुष्य रूप में ही पैदा हो, ऐसा नियम नहीं है। वह क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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