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भगवान महावीर ने प्रश्न को समाहित करते हुए कहा- नैरयिक आरंभ-परिग्रह से युक्त होते हैं।109 आरंभ और परिग्रह दोनों जीव की स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। ये वृत्तियां नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव सभी सांसारिक जीवों में पाई जाती है।
सांसारिक जीवों के छह वर्गीकरण है- पृथ्वी, अप्, तैजस, वायु, वनस्पति और त्रसकाय। नैरयिक सभी प्रकार के जीवों की हिंसा करता है इसलिये वह सारंभी है।
भगवती में परिग्रह के तीन प्रकार बताये हैं- शरीर, कर्म, सचित्त-अचित्त मिश्र द्रव्या110 स्थानांग में भी तीन प्रकार के परिग्रह बताये हैं- तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा - कम्म परिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे अर्थात् कर्म परिग्रह, शरीर परिग्रह, उपधि परिग्रह। उपधि से तात्पर्य भौतिक वस्तुएं या द्रव्य, पदार्थ, वस्त्र-पात्र आदि है।111
नैरयिक के पास ये तीनों प्रकार के परिग्रह होते हैं इसलिये वे सपरिग्रही हैं। स्थानांग में नैरयिक और एकेन्द्रिय के पास तीसरे प्रकार के परिग्रह का निषेध किया गया है। प्रश्न होता है यह अन्तर क्यों ? समाधान है कि उपधि परिग्रह दो प्रकार का है- 1. भवन, आसन, शयन, पात्र आदि। 2. आहार के लिये उपयुक्त सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य। नैरयिक सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य रूप परिग्रह का उपयोग करते हैं किन्तु उनके पास भवन, स्त्री, आसन, शयन आदि का परिग्रह नहीं होता। देव के प्रसंग में इन दोनों प्रकार के परिग्रह का उल्लेख है। नैरयिक की तरह ही एकेन्द्रिय ज्ञातव्य है।
सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य रूप परिग्रह नैरयिक और एकेन्द्रिय में भी होता है। इसलिये स्थानांग की वक्तव्यता में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। द्वीन्द्रिय जीव बाह्य पदार्थों का संग्रह करते है। वे अपने लिये मिट्टी के घरोंदे भी बना लेते हैं।112 इसलिये उनका एकेन्द्रिय से भिन्न विवेचन है।
तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य भी नैरयिक जीवों की तरह ही ज्ञातव्य हैं। आरंभ और परिग्रह मोक्ष मार्ग के अवरोधक है। स्थानांग सूत्र के दूसरे स्थान (अध्याय) में आरंभ - परिग्रह का विस्तृत विवेचन है। बाईस सूत्रों में आरंभ-परिग्रह की प्रवृत्ति से होने वाली अनुपलब्धि-उपलब्धि की चर्चा भी मिलती है। वहां आरम्भ और परिग्रह के त्याग से होने वाली उपलब्धि-अनुपलब्धि इस प्रकार हैं___ 1. केवली प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण - आप्त पुरुषों द्वारा प्रतिपादित सत्यमार्ग
का श्रवण
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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