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(ब) क्या जीव-वध न होने पर हिंसा होती है ?
(स) क्या जीव- वध होने पर भी हिंसा नहीं होती ?
इन प्रश्नों पर चिंतकों ने अलग-अलग समाधान प्रस्तुत किये हैं। बौद्धों का उत्तर इस प्रकार है - 1. सत्त्व है 2. सत्त्व - संज्ञा है 3. मारने का चिन्तन है 4. प्राणी मर जाता है। इन चारों की समन्विति होने पर हिंसा होती है, हिंसा - जन्य कर्म का उपचय होता है । " किस स्थिति में हिंसा नहीं होती, इसका भी सूत्रकृतांग में उल्लेख है। नियुक्तिकार के अनुसार अबंधकारक चार अवस्थाएं हैं
(अ) परिज्ञोपचित - केवल मानसिक पर्यालोचन से किसी प्राणी का वध नहीं
होता।
(ब) अविज्ञोपचित- अज्ञात अवस्था में प्राणी का वध हो भी जाये तो हिंसाजनित कर्म का चय नहीं होता।
(स) ईर्यापथ - चलते समय कोई जीव मर जाता है, उससे हिंसा जन्य कर्म का संचय नहीं होता क्योंकि वहां मारने का अभिप्राय नहीं होता।
(द) स्वप्नान्तिक - स्वप्न में जीव-वध हो जाने पर भी हिंसा सम्बन्धी कर्म का चय नहीं होता। इन चारों से मात्र कर्म का स्पर्श होता है जो सूक्ष्म तंतु-बंधन की तरह तत्काल छिन्न हो जाता है अथवा सूखी दीवार पर चिपकने वाली धूल के समान शीघ्र ही नीचे गिर जाता है। जीव वध के प्रति कृत, कारित और अनुमोदित - इन तीनों का प्रयोग होने पर या किसी एक के प्रयोग होने पर भी कर्म का उपचय होता है। परिज्ञोपचित और अनुमोदन दोनों भिन्न-भिन्न हैं। परिज्ञोपचित में केवल मानसिक चिन्तन है और अनुमोदन में दूसरे द्वारा किये जाने वाले जीव वध का समर्थन है। 92
जैन मान्यता में हिंसा अहिंसा का मापदण्ड प्रमाद-अप्रमाद है। हिंसा का संकल्प हो या न हो, यदि प्रमाद की विद्यमानता है तो हिंसा संभव है। अप्रमत्त और वीतराग के मन में हिंसा का संकल्प ही पैदा नहीं होता। अत: उनके द्वारा जीव- वध हो भी जाये तो उनके हिंसाजनित कर्म-बंध नहीं होता। प्रमत्त जीवों के कर्म-बंध की क्रिया सतत चालू रहती है।
क्रियापंचक और चौबीस दण्डक
चौबीस दण्डकों में कायिकी आदि क्रिया-पंचक की मीमांसा तथा एक जीव की अन्य जीव या जीवों के प्रति कितनी क्रिया लगती है- इसे हम निम्नांकित तालिका से समझ सकते हैं
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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