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गौतम! यह स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती यावत व्याघात न होने पर प्राणातिपातक्रिया छहों दिशाओं में होती है, व्याघात होने पर तीन, चार अथवा पांच दिशाओं में होती है।
भन्ते! क्या वह कृत होती है? अथवा अकृत होती है? गौतम! वह कृत होती है, अकृत नहीं होती। भन्ते! क्या वह आत्मकृत होती है? परकृत होती है? अथवा अभयकृत होती है? गौतम! वह आत्मकृत होती है, परकृत नहीं होती, अभयकृत भी नहीं होती।88
भगवती का यह संवाद स्पष्ट करता है कि जीव प्राणातिपात क्रिया करता है, वह स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं। यदि निर्व्याघात हो तो छहों दिशाओं से और सव्याघात हो तो कदाचित् तीन, चार, पांच दिशाओं से स्पृष्ट होती है। वह क्रिया आत्मकृत, परकृत या उभयकृत होती है। स्पृष्ट होने का अर्थ है प्राणातिपात करनेवाले से उसका तादात्म्य स्थापित हो जाता है। क्रिया कृत होती है अकृत नहीं। यह जैन दर्शन के आत्म कर्तृत्ववादी सिद्धांत की पुष्टि करती है। क्रिया आनुपूर्वीकृत होती है, अनानुपूर्वीकृत नहीं होती।
आनुपूर्वी का अर्थ है- क्रम और अनानुपूर्वी का अर्थ है- अक्रम, एक साथ न होना। जिसमें पूर्व और पश्चात् का विभाग न हो। एक समय में एक ही क्रिया होती है दो, तीन, चार नहीं। प्रत्येक क्रिया का अपना-अपना काल होता है। जहां कालगत क्रम है वहां आनुपूर्वीकृत होना अवश्यंभावी है। प्राणातिपात क्रिया और चौबीस दंडक
नरक के जीव भी प्राणातिपात क्रिया करते हैं। वे नियमत: छहों दिशाओं से स्पृष्ट होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक तक के सभी जीव नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। एकेन्द्रिय सामान्य जीव की तरह वक्तव्य हैं। क्रिया और कर्म-बंध
__ पनवणा के अनुसार जीव प्राणातिपात क्रिया से सात या आठ कर्म-प्रकृतियों का बंध करता है। आयुष्य सहित आठ का बंध करता है । यदि आयु का बंध पूर्व में हो चुका है तो सात कर्म प्रकृतियों का बंध करता है। नारक से वैमानिक तक जीवों के लिये एक ही नियम है। इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर सभी के तीन - तीन विकल्प हैं।
(अ) सात कर्म प्रकृति का बंध होता है। क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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