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इस प्रसंग में एक और भी प्रश्न है कि श्रावक संकल्पी हिंसा का त्याग करता है, अनजान में हिंसा हो जाये तो क्या उसके व्रत का अतिक्रमण होता है ?
भगवती के आधार पर कहा जा सकता है कि अनजान में हुई हिंसा से श्रावक के व्रत का अतिक्रमण नहीं होता; क्योंकि वह संकल्पजनित हिंसा से निवृत्त हो चुका है। मिट्टी खोदते समय किसी त्रस जीव का मर जाना अनाभोगजनित हिंसा है संकल्प पूर्वक की गई हिंसा नहीं। इसी प्रकार संकल्प पूर्वक वृक्ष काटने का किसी श्रावक ने त्याग किया। मिट्टी खोदते समय किसी वृक्ष की जड़ कट गई यह अनाभोगजनित हिंसा है, संकल्प पूर्वक की गई हिंसा नहीं। ___ जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है- 'क्रियमाण कृत' (कडेमाणेकडे)- अर्थात् जो कार्य किया जा रहा है, उसे किया हुआ माना जाता है। धनुर्धारी व्यक्ति ने प्रत्यञ्चा पर बाण को चढ़ा दिया। प्रत्यञ्चा को खींचकर बाण को वर्तुलाकार बना दिया। बाण को फेंकने की तैयारी में था। उपर्युक्त सिद्धांत के अनुसार निसृज्यमान को निसृष्ट ही माना जाएगा। इसलिये वह धनुर्धर ही मृग का वधक होगा।80
उपर्युक्त चर्चा का मुख्य लक्ष्य वैर-बंध के कारण व स्वरूप का विमर्श है। गौण लक्ष्य क्रिया का विमर्श है। भगवती भाष्य में वैर-बंध के दो कारण हैं- आसन्नवध और अनवकांक्षावृत्ति। वधक-वध्य को मारता है तब वैर का बंध होता है। उस बंध के फलस्वरूप वध्य निकट भविष्य में वधक को मार देता है।81
योग सूत्र में भी आसन्नकाल में कर्म-विपाक का उल्लेख है। महर्षि पतंजली ने दृष्ट जन्म वेदनीय और अदृष्ट जन्म वेदनीय की बात कही है। 82 वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने वध से होने वाले बंध को जघन्योदयी (शीघ्र उदय में आने वाला) कहा है।83
भगवती भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ के अभिमत से भी तीव्र संवेगजन्य पुण्य, तीव्र क्लेश-जन्य पाप सद्योविपाकी होता है।839
भगवती के नौवें शतक में वैर - स्पर्श की विस्तृत चर्चा है। 84 जो व्यक्ति पर प्राण से निरपेक्ष होकर वैर - बंध में प्रवृत होता है, वह अनवकांक्षण वृत्तिक है। अनवकांक्षण वृत्ति भी वैरानुबंधी वैर की निमित्त बन जाती है।
भगवान महावीर ने तत्त्व प्रतिपादन में निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों का प्रयोग किया है। इस आलापक में व्यवहार नय से हिंसा की समस्या पर चिंतन किया गया है। किसी व्यक्ति ने किसी पर शस्त्र का प्रहार किया, उस प्रहार से यदि वह
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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