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3. प्रादोषिकी (Malicious activity)
क्रिया का तीसरा प्रकार है- प्रदोष अर्थात् क्रोधावेश । प्रदोष का अर्थ स्थानांग वृत्तिकार ने 'मत्सर' किया है उससे होनेवाली क्रिया प्रादोषिकी है। 69
आचार्य अकलंक के अनुसार प्रदोष का अर्थ क्रोधावेश है 70 (क) क्रोध अनिमित्तक होता है। जबकि प्रदोष निमित्त से ही होता है। क्रोध और प्रदोष में यही अंतर है। 70 (ख) महात्मा गांधी ने भी सभी प्रकार की असभ्यताओं, अशिष्टताओं, दुर्भावनाओं को हिंसा कहा। 71
इस क्रिया में विद्वेष भावना प्रबलतम होती है। अकुशल परिणाम कर्म-बंध का मुख्य कारण माना गया है। मनुष्य क्रोधावेश जन्य क्रिया का प्रयोग कभी अपने पर, कभी दूसरे पर और कभी एक साथ दोनों पर करता है। यह जीव प्रादोषिकी क्रिया है। क्रोध का प्रयोग अचेतन पदार्थों पर किया जाता है तब अजीव प्रादोषिकी क्रिया कहलाती है। स्थानांग वृत्तिकार ने जीव प्रादोषिकी और अजीव प्रादोषिकी का जो अर्थ किया है उसमें क्रोधावेश ही फलित होता है। प्रादोषिकी क्रिया के प्रकारान्तर से तीन कारणों का निर्देश भी मिलता है। 72
(1) अपने निमित्त से किसी कार्य के बिगड़ जाने से स्वयं को ही गाली देना, छाती और सिर पीटना, आत्महत्या करना आदि।
(2) दूसरे निमित्त से होने वाली गलती के कारण दूसरे पर द्वेष करना, उसे पीटना, मारना आदि।
(3) दोनों के निमित्त से अपने और दूसरे पर प्रद्वेष करना।
प्रदोष के अग्रिम चरण दो हैं- परिताप और प्राणातिपात । अविरति हिंसा का मूल कारण है। शस्त्र उसका बाहरी कारण है। प्रद्वेष हिंसा का आन्तरिक कारण है। परिताप और प्राणातिपात उसके परिणाम हैं।
4. पारितापनिकी क्रिया (Torturous activity)
दूसरों को परितापन देने वाली क्रिया पारितापनिकी है। परितापना का अर्थ हैअत्यन्त दुःखद -व्यवहार करना, जिसमें किसी की मृत्यु की संभावना हो। 73क स्व - पर के भेद से वह दो प्रकार की है- 73 (ख)
(1) स्वहस्त पारितापनिकी, (2) परहस्त पारितापनिकी ।
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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