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सर्वार्थसिद्धि के कर्ता पूज्यपाद देवनंदी, तत्त्वार्थवार्तिक के कर्ता आचार्य अकलंक, श्लोक वार्तिक के कर्ता आचार्य विद्यानंद- तीनों दिगम्बर आचार्य है, इनका एक विचार होना आश्चर्य नहीं किन्तु तत्त्वार्थ के टीकाकार हरिभद्रसूरि, भाष्यानुसारिणी के कर्ता सिद्धसेनगणी, दोनों श्वेताम्बर आचार्य हैं फिर भी इन्होंने व्याख्या की एकरूपता का निर्वाह किया है। सिद्धसेनगणी तत्त्वार्थ की व्याख्याओं का अनुसरण करते हुए भी स्थानांग वृत्तिगत व्याख्या के प्रति जागरूक रहे हैं।
__ आगमों के अवलोकन से क्रियाओं की संख्या 27 भी मिलती है। 27 क्रियाओं में एक परम्परा 'प्रेमक्रिया' और 'द्वेषक्रिया' को छोड़ देती है। दूसरी परम्परा उन्हें स्वीकार कर सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की क्रिया का वर्जन करती है। इस दृष्टि से दोनों 25 क्रियाओं पर एक मत हो जाते हैं। 25 क्रियाओं में 5-5 क्रियाओं के आधार पर पंचक की कल्पना की गई है। जिनका विवेचन निम्नानुसार हैकायिकी क्रियापंचक
जैन धर्म केवल प्रवृत्ति प्रधान धर्म नहीं है, उसमें प्रवृत्ति-निवृत्ति का समन्वय है। दोनों का प्रतिनिधित्व करते है- आश्रव और संवर। आश्रव बंध और संवर मोक्ष का हेतु है किन्तु आश्रव का सम्बन्ध प्रवृत्ति से, संवर का निवृत्ति से है। अध्यात्म साधना के प्रारंभ काल में दोनों रहते हैं। साधना की सर्वोच्च स्थिति प्राप्त होने पर प्रवृत्ति का वलय टूट जाता है, शेष रहती है केवल निवृत्ति।
प्रवृत्ति शुभ-अशुभ उभय रूप है। प्रज्ञापना वृत्ति के अनुसार क्रिया का सम्बन्ध अशुभ प्रवृत्ति से है। क्रिया का मुख्य हेतु शरीर है। अत: हिंसा-अहिंसा की सीमा को भिन्न-भिन्न समझने के लिये कायिकी आदि क्रियाओं के पंचक का वर्णन मननीय है। इसमें कायिकी, प्राणातिपातिकी, पारितापनिकी, प्रादोषिकी और अधिकरणिकी इन पांच क्रियाओं का परिणमन किया गया है
कायिकी
प्राणातिपातिकी आधिकरणिकी
प्रादोषिकी पारितातिनिकी
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप