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दशवैकालिक : इतिहास और परम्परा अध्ययन में आचार में समाधि रखने का प्रकरण है। नौवें अध्ययन में विनय का
और दसवें अध्ययन में साधु कौन? की समग्र परिभाषा है। पहली चूलिका में साधुपन से मन उचट जाने पर उसके स्थिरीकरण के उपायों का दिग्दर्शन है। दूसरी चूलिका में विविक्त चर्या का सुन्दर निरूपण है।'
हमने इस सूत्र को लगभग तीन सौ विषयों में बांटा हैं। एक-एक पद्य में कहीं-कहीं दो-दो विषय भी आ गए हैं। इस प्रकार उसके विस्तृत विषयीकरण से सूत्र की महत्ता पर सहज प्रकाश पड़ सकता है। उदाहरण के लिए प्रथम दो अध्ययनों के विषय यहां दिये जाते हैं। पहला अध्ययन : द्रुमपुष्पिका (धर्मप्रशंसा और माधुकरी वृत्ति) श्लोक : १. धर्म का माहात्म्य, धर्म का स्वरूप और धार्मिक का
माहात्म्य। श्लोक : २-५. माधुकरी वृत्ति। दूसरा अध्ययन : श्रामण्यपूर्वक (संयम में धृति और उसकी साधना) श्लोक : १. श्रामण्य और मदन काम ।
२,३. त्यागी कौन? ४,५. काम-राग-निवारण, मनोनिग्रह के साधन । ६. मनोनिग्रह का चिन्तन सूत्र, अगन्धन-कुल के सर्प का उदाहरण। ७-९. रथनेमि को राजीमती का उपदेश, हटवृक्ष का उदाहरण। १०. रथनेमि का संयम में पुनः स्थिरीकरण ।
११. संबुद्ध का कर्तव्य। एक बात
साधारणतया आज तक यह समझा जाता रहा है कि दशवैकालिक सूत्र सीधा और सरल है। इसका कारण यही था कि जैन सम्प्रदायों में शैक्ष के लिए यह प्रथम पठनीय सूत्र रहा है। प्रायः जैन मुनि दीक्षित होते ही इसे कंठस्थ करते हैं और कालान्तर में यही स्वाध्याय का विषय बना रहता है। परन्तु अभी-अभी आचार्यश्री के आदेश से मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) ने इसका अनुवाद प्रारंभ किया। अनुवादकाल में मुनिश्री को यह कहते सुना–‘ऐसे तो यह