________________
७६
आगम-सम्पादन की यात्रा
और जो गीतार्थ होता है उसे परिहार तप दिया जाता है। परिहार तप वहन करने वाला मुनि ‘पारिहारिअ' कहलाता है।
उसके लिए दस बातों का निषेध है
१. दूसरों को सूत्र तथा अर्थ पूछने का निषेध और दूसरों द्वारा पूछने पर उन्हें सूत्र और अर्थ बताने का निषेध।
२. सूत्र और अर्थ का दूसरों के साथ परावर्तन करने का निषेध । ३. दूसरों के साथ गोचरी जाने का निषेध । ४. दूसरों के साथ वन्दन-व्यवहार का निषेध । ५. दूसरों के साथ पात्र-व्यवहार का निषेध । ६. दूसरों के उपकरण-प्रतिलेखन का निषेध । ७. दूसरों के साथ संघाटक-भाव का निषेध । ८. दूसरों को भत्त-पान देने का निषेध । ९. दूसरों के साथ भोजन करने का निषेध । १०. दूसरे भी उपरोक्त बातें इसके साथ नहीं कर सकते।
यह 'पारिहारिअ' शब्द के पीछे रही अर्थ-परम्परा थी। 'अनुपारिहारिअ' उसे कहा जाता था, जो 'पारिहारिअ' तप वहन करने वाले व्यक्ति को सहयोग देता। शेष व्यक्ति 'अपारिहारिअ' कहलाते थे।
यह अर्थ परम्परा का ज्ञान भाष्य, चूर्णि के अध्ययन से ही प्राप्त हो सकता है, मूल सूत्र से नहीं।
अतः यह स्वयमेव स्पष्ट है कि आगमों को सही समझने के लिए उनके व्याख्या-ग्रन्थों का पठन-पाठन अत्यन्त आवश्यक और उपयोगी है। आज हमारे अनेक साधु-साध्वी उनका तलस्पर्शी अध्ययन करते हैं और हमारी यह कल्पना भी है कि सभी भाष्य-चूर्णियों का आधुनिक ढंग से सम्पादन भी किया जाए। __कुछ समय तक हमारे संघ में इन व्याख्या-ग्रन्थों का अध्ययन छूट-सा गया था। उसके पीछे कुछ भी कारण रहा हो, वह अवरोध अवांछनीय ही माना जाएगा। आज स्थिति में परिवर्तन हुआ है। आचार्यश्री इनके अध्ययनअध्यापन के लिए साधु-साध्वियों को प्रेरित करते हैं। अभी-अभी साध्वीश्री