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आगम- सम्पादन की यात्रा
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१. कसायवसणेहि
यह शब्द प्रथम सूत्रकृतांग सूत्र ( ३ । १५) के श्लोक में आया है। वह श्लोक इस प्रकार है
अप्पेगे पलियतंसि, चारो चोरो त्ति सुव्वयं । बंधंति भिक्खुयं बाला, कसायवसणेहि य ।।
चूर्णिकार ने यहां 'कसायवसणेहि' शब्द मानकर उसकी व्याख्या इस प्रकार की है
'कसायवसणेहि य' त्ति तत्पुरुषः समासः द्वन्द्वो वाऽयम्, सभावतः केचित् साधून् दृष्ट्वा कसाइज्जंति, वसणं केसिंचि भवति, कप्पडिगा पासंडिया वा होंति, णच्चावेंति।' (चूर्णि पृ. १०५) अर्थात् कई व्यक्ति साधुओं को देखकर क्रोधित हो जाते हैं तो कई व्यक्ति उन्हें देखकर कष्ट का अनुभव करते हैं। कई उनको कार्पटिक या पाषंडिक मानते हैं, कई उनको नचाते हैं ।
टीकाकार ने 'कसायवयणेहि' शब्द मानकर उसका अर्थ - क्रोधप्रधान कटुकवचनों से किया है- 'क्रोधप्रधानकटुकवचनैः ।' लगता है चूर्णिकार द्वारा स्वीकृत पाठ मूल - परम्परा का संवाहक है । इस 'कसायवसणेहि' शब्द से एक प्राचीन परम्परा का स्पष्ट संकेत मिलता है । प्राचीनकाल में गुप्तचर, जो एक राज्य से जाकर दूसरे राज्य में रहस्य संकलन करते थे, उन्हें तथा चोरों को कठोर दण्ड दिया जाता था और उन्हें लाल वस्त्र पहनाकर घुमाया जाता था । जब भिक्षु अनार्य देशों में जाते, तब वहां के राज्याधिकारी उन्हें गुप्तचर समझ कर पकड़ लेते और उन्हें लाल वस्त्र से बांध देते थे । इस श्लोक के अंतिम दो चरण इसी परम्परा की ओर संकेत करते हैं ।
दूसरी बात है कि 'बंधंति' क्रिया 'कसायवसणेहि य' के साथ उचित बैठती है, 'कसायवयणेहि' के साथ नहीं ।
'कसायवसणेहि' शब्द आते-आते टीकाकाल में 'कसायवयण' बन गया और इस प्राचीन परम्परा का अर्थ-बोध लुप्त हो गया ।
२. दढ़धम्म और महारह
प्रथम सूत्रकृतांग सूत्र के तृतीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक के पहले श्लोक के उत्तरार्ध में दो शब्द आए हैं- 'दढधम्मा' और 'महारह' । सम्पूर्ण श्लोक इस प्रकार है