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________________ १५४ आगम- सम्पादन की यात्रा ५. औपचारिक - विनय । भगवती (२५ ।७।८०३) में भी विनय के भेद - प्रभेदों का उल्लेख कुछेक परिवर्तन के साथ हुआ है 1 ३३. आगमों में विगयविवेक जिस प्रकार मनोज्ञ - शब्द, मनोज्ञ-रूप, मनोज्ञ - रस, मनोज्ञ-स्पर्श आदि मन में विकार उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार कई प्रकार के भोजन भी मानसिक विकृति के निमित्त बनते हैं । यह सही है कि व्यक्ति का व्यामोह ही उसके विकृति बनने का उपादान है, किन्तु निमित्त कारणों से विकृति में उभार आता है या सुषुप्त विकृत - भावनाएं योग्य अवसर पर उदित हो जाती हैं, यह भी सत्य है । बाह्य निमित्तों में भोजन भी एक निमित्त है, जिससे कि व्यक्ति में उत्तेजना आती है । इसलिए साधना में रत व्यक्ति के लिए भोजन का विवेक उतना ही आवश्यक है जितना कि प्राणवायु के ग्रहण का । जिसमें यह विवेक नहीं होता वह पग-पग पर कष्ट पाता है और पथच्युत संभावनाओं से प्रतिपल घिरा रहता है। जैन आगमों में स्थान-स्थान पर इस विवेक का विशद उल्लेख है और वह साधक के लिए प्रकाश स्तम्भ है । सामान्य आहार लिए बिना शरीर टिकता नहीं, इसलिए साधक आहार ग्रहण करता है । साथ-साथ शारीरिक संस्थान को तपस्या आदि के योग्य बनाने के लिए तथा ध्यान आदि में घंटों तक अविचलित रह सके ऐसी शक्ति अर्जित करने के लिए वह कुछ पौष्टिक आहार भी लेता है। पौष्टिक आहार लेने का निषेध नहीं है, किन्तु उसे कब और कैसे लिया जाए, इसका विवेक अवश्य होना चाहिए । ग्रन्थों में यह मिलता है कि आचार्य अपने शिष्यों के आहार का संतुलन रखे । न उन्हें अतिमात्रा में या प्रतिदिन विगय, घी-दूध आदि ही दे और न प्रतिदिन रूखासूखा ही दे । क्योंकि प्रतिदिन विगय आदि देने से साधक के मन में उत्तेजना बढ़ती है और वह साधना से फिसल जाता है, प्रतिदिन रूखा-सूखा देने से बुद्धि तीक्ष्ण नहीं बनती, रोग आदि भी उत्पन्न होते हैं । मूत्र की बाधा बारबार होने से ध्यान, स्वाध्याय आदि में विघ्न उपस्थित होते हैं । अतः दोनों प्रकार के भोजन का संतुलन आवश्यक हो जाता है ।
SR No.032420
Book TitleAgam Sampadan Ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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