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________________ आगम- सम्पादन की यात्रा १४४ १४. याचना - परीषह मुनि याचना से उत्पन्न लज्जा आदि के कष्टों को सहन करे । मुनि को प्रत्येक वस्तु याचित ही मिलती है। अपनी शालीनता के कारण उसे याचना करने में लज्जा का अनुभव होता है, परन्तु कार्य उपस्थित होने पर अपने धर्म - शरीर की रक्षा के लिए अवश्य याचना करे । तपस्या के द्वारा शरीर सूख जाने पर, अस्थिपंजर मात्र शरीर शेष रहने पर भी जो मुनि दीन वचन, मुख- वैवर्ण्य आदि -आदि संज्ञाओं द्वारा भोजन आदि पदार्थों की याचना नहीं करता, वह याचनापरीषह पर विजय पा लेता है । १५. अलाभ - परीषह मुनि अलाभ को सहन करे । अभिलषित वस्तु की प्राप्ति न होने पर दीन न बने । जो मुनि अनेक दिनों तक आहार की प्राप्ति होने पर भी मन में खिन्न नहीं होता, जो लाभ से अलाभ अच्छा है-तप का हेतु है, ऐसा मानता है, जो न मिलने पर दीन नहीं होता, जो ऐसा सोचता है कि गृहस्थ के घर में अनेक पदार्थ होते हैं, वह उन्हें दे या न दे - यह उसकी अपनी इच्छा है, वह अलाभपरीषह पर विजय पा लेता है। १६. रोग - परीषह मुनि रोग की वेदना को समभाव से सहन करे । दीन न बने । व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा को स्थिर बनाए और प्राप्त दुःख को प्रसन्नता से सहे। जो मुनि शरीर को अशुचि प्रधान, अत्राण और अनित्य मानता है, जो शरीर का परिकर्म नहीं करता, जो शरीर को संयम पालन का साधन मानकर उसकी रक्षा के लिए अनासक्त भाव से भोजन करता है, जो कभी अपथ्य आहार के सेवन से रोग होने पर भी अधीर नहीं होता, जो रोग का उपशमन करने वाली लब्धियों से सम्पन्न होने पर भी, काम- - निस्पृह होने के कारण, उनका प्रयोग नहीं करता, जो चिकित्सा को आवश्यकता होने पर शास्त्रोक्त - विधि से वर्तन करता है, वह रोगपरीषह पर विजय पा लेता है । मूल सूत्रों में कहा है- 'चिकित्सा का अभिनन्दन न करे।" प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में लिखा है कि चिकित्सा की आवश्यकता होने पर शास्त्रोक्तविधि १. उत्तराध्ययन २ । ३३ ।
SR No.032420
Book TitleAgam Sampadan Ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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