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________________ आगम- सम्पादन की यात्रा भगवान् महावीर की धर्म-प्ररूपणा के दो मुख्य अंग हैं-अहिंसा और कष्ट सहिष्णुता । ' कष्ट सहने का अर्थ शरीर, इन्द्रिय और मन को पीड़ित करना नहीं है, किन्तु अहिंसा आदि धर्मों की आराधना को सुस्थिर बनाए रखना है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है १३८ सुहेण भावियं नाणं, दुहे जादे तम्हा जहावलं जोई, अप्पा दुक्खेहिं विणस्सहि । भावए ।। २ 'सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए योगी को यथाशक्ति अपने आपको दुःख से भावित करना चाहिये।' इसका अर्थ काया को क्लेश देना नहीं है । यद्यपि एक सीमित अर्थ में काया - क्लेश भी तपरूप में स्वीकृत है, फिर भी परीषह और काय क्लेश एक नहीं है । कायक्लेश आसन करने, ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेने, वर्षा ऋतु में तरुमूल में निवास करने, शीत ऋतु में अपावृत्त स्थान में सोने और नाना प्रकार की प्रतिमाओं को स्वीकार करने, न खुजलाने, शरीर की विभूषा न करने के अर्थ में स्वीकृत है। परीषह और कायक्लेश उक्त प्रकारों में से कोई कष्ट जो स्वयं इच्छानुसार झेला जाता है वह 'कायक्लेश' है और जो इच्छा के बिना प्राप्त होता है वह 'परीषह' है । ' कायक्लेश के अभ्यास से शारीरिक दुःख सहने की क्षमता, शारीरिक दुःखों के प्रति अनाकांक्षा और क्वचिद् जिनशासन की प्रभावना भी होती है | " परीषह सहने से स्वीकृत अहिंसा आदि धर्मों की सुरक्षा होती है । परीषह बाईस हैं १. क्षुधा २ पिपासा ३. शीत ४. उष्ण ५. दंश-मशक ६. अचेल ७. अरति ८. स्त्री ९. चर्या १०. निषधा ११. शय्या १२. आक्रोश १३. वध १. अणु धम्मो मुणिणा पवेइओ - सूत्रकृतांग १।५ । २. षट् प्राभृत- मोक्षप्राभृत ६२ । ३. उत्तराध्ययन ३० । २७, औपपातिक सूत्र ३० । ४. तत्त्वार्थसूत्र ९ । १९, श्रुतसागरीय वृत्ति, पत्र ३०१ । 'यदृच्छया समागतः परीषहः, स्वयमेव कृतः कायक्लेशः ' । ५. वही पत्र ३०१ । ६. उत्तराध्ययन, २, तत्त्वार्थसूत्र ९ । ९ ।
SR No.032420
Book TitleAgam Sampadan Ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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