________________
आगमकालीन सभ्यता और संस्कृति
११७
होती है । अतः मन्द बुद्धिवाले लोगों और स्त्रियों के लिए द्वादशांगी तथा अंगबाह्य ग्रन्थों की रचना हुई है । '
आगम-साहित्य में अध्ययन - परम्परा के तीन क्रम मिलते हैं । कुछ श्रमण चतुर्दशपूर्वी होते थे, कुछ द्वादशांगी के विद्वान् और कुछ सामायिक आदि ग्यारह अंगों के पाठक होते थे । चतुर्दशपूर्वी श्रमणों का अधिक महत्त्व रहा है। उन्हें 'सुत- केवली' कहा गया है ।"
जिस प्रकार चतुर्दशपूर्वी हैं, क्या उसी प्रकार ग्यारहपूर्वी, बारहपूर्वी और तेरहपूर्वी भी होते हैं ? आचार्य द्रोण ने कहा कि इस अवसर्पिणी काल में चौदह पूर्वधर के बाद दसपूर्वी ही होते हैं, ग्यारह, बारह, तेरहपूर्वी नहीं होते ।
सेन प्रश्न (पत्र १०४) में कहा गया है कि जिस प्रकार चौदहपूर्वधर, दसपूर्वधर, नौपूर्वधर हुए हैं उसी प्रकार एक से आठ पूर्वधर भी होने चाहिए, क्योंकि जीव-कल्प की वृत्ति में आचार - प्रकरण से आठ पूर्व तक के धारक को 'श्रुत व्यवहारी' कहा गया है।
आगमों की भाषा
जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी है । आगम - साहित्य के अनुसार जैन तीर्थंकर अर्धमागधी में उपदेश देते हैं ।
....ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणमतिगम्भीरार्थत्वात् तेषां च दुर्मेधसत्वात् स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव, तासां तुच्छत्वादिदोषबहुलत्वात् । उक्तं च- तुच्छा गारवबहुआ चलिंदिया दुब्बलाधिईए य । इति अवसज्झयणा भूयावायो न इत्थीणं....विशेषावश्यकभाष्य गाथा ५५५ । ....तो दुर्मेधसां स्त्रीणां चानुग्रहाय शेषागमानामंगबाह्यस्य च विरचनमति - उक्तं च 'जइविय भूयावए' सव्वस्स वयोगयस्स ओयारो । निज्जूहणा तहाविहु दुम्मेहेयप्प इत्थीया - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ५५४ । २. जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृष्ठ ६० ।
३. ओघनिर्युक्ति वृत्तिपत्र ३ ।
४.
५.
प्राकृत आदि छह भाषाओं में 'मागधी' भी एक है। इसमें 'र' और 'स' को 'ल' और 'स' ( माग्ध्यां रसौ लसौ) हो जाता है। यह मागधी का लक्षण है । जो भाषा इस समग्र लक्षण से युक्त नहीं होती उसे अर्धमागधी कहा जाता है । समवायांग सूत्र - अभयदेवसूरिकृत वृत्तिपत्र ५९ ।
भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खड़ - समवायांग, ३४।२२।