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________________ ११२ आगम-सम्पादन की यात्रा 'दीपांग' और 'ज्योतिअंग' नाम वाले कल्पवृक्षों से निरन्तर प्रकाश निकलता। यह उनकी विस्रसा स्वाभाविक परिणति थी। 'ज्योतिअंग' कल्पवृक्षों से सूर्य का-सा प्रकाश निकलता और सारे स्थान को प्रकाशित कर देता। इस प्रकार यौगलिकों की प्रकाश-संबंधी समस्या इससे समाहित हो जाती। जब वे भूख से पीड़ित होते तब वे 'चित्ररस' कल्पवृक्षों के पास जाते और उनके फल खाकर क्षुधा-निवारण करते। इन वृक्षों के फल अत्यन्त स्वादिष्ट, बल-बुद्धि के बढ़ाने वाले, इन्द्रिय और शरीर को पुष्ट करने वाले होते थे। इनके खाने से पकवान का आनन्द आता था। 'चित्रांग' कल्पवृक्ष अत्यन्त सुन्दर होते थे। उनके फूल माला के आकार वाले मनोहारी, विविध वर्ण वाले और सुरभियुक्त होते थे। _ 'मणिअंग' कल्पवृक्षों के पत्र-पुष्प आभरणों के आकार वाले होते थे, कई पत्र-पुष्प, कुण्डल के आकार वाले, कई कटक के आकार वाले, कई बाजूबंद के आकार वाले होते थे। यौगलिक स्त्री-पुरुष इन्हीं को पहनकर आभूषणों का आनन्द लूटते थे। 'अनग्न' कल्पवृक्षों की छाल या पत्र इतने सूक्ष्म और पतले होते थे कि वे वस्त्रों के काम में आते। इन वस्त्रों की विभिन्नताओं से वस्त्र की परिणति में भी विभिन्नताएं आतीं और अति सूक्ष्म सुकुमार देवदूष्य का अनुकरण करने वाले, मनोहर और निर्मल आभा वाले (वस्त्र जैसी परिणति वाले) वस्त्र तैयार हो जाते। उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि उनकी सारी आवश्यकताएं कल्पवृक्षों से पूर्ण होती थीं। अतः उन्हें 'कल्पवृक्ष' कह दिया गया। सभी कल्पवृक्ष वृक्षमात्र थे। विभिन्न वृक्षों के विभिन्न उपयोग होते थे, परन्तु यह नहीं कि किसी भी वृक्ष के नीचे खड़े होकर सप्तभौम महल की वांछा करने पर वह पूरित हो जाती हो या खीर-पूड़ी पकवान की अभिलाषा करने मात्र से वह कल्पवृक्ष उनको प्रस्तुत कर देता हो। ये सारी बातें उपचार से कह दी जाती हैं। इसलिए हम इन्हें औपचारिक सत्य भले ही कह दें, पर वास्तविक सत्य नहीं है। टीकाकार इस विषय में बहुत स्पष्ट रहे हैं। परन्तु स्तवककारों की परम्परा ने इस मान्यता को कुछ अतिरंजित कर सामने रखा, अतः लोगों को इसके प्रति कुछ अनास्था-सी हुई।
SR No.032420
Book TitleAgam Sampadan Ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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