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आगम- सम्पादन की यात्रा
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१. मज्झिमेणं वयसा '
आचारांग के आठवें अध्ययन के तीसरे उद्देशक का प्रथम सूत्र है - 'मज्झिमेणं वयसा एगे, संबुज्झमाणा समुट्ठिता' – कुछ व्यक्ति मध्यम वय में भी संबुध्यमान होकर संयम के लिए उत्थित होते हैं। यहां 'मध्यम वय' शब्द एक विशेष परम्परा या सिद्धांत का द्योतक है I
भगवान् महावीर का दर्शन सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्वजनिक था । उसमें काल, वय, व्यक्ति या क्षेत्रकृत बाधाएं नहीं थीं ।
इसके विपरीत अन्य दर्शनों में धर्म-प्रज्ञप्ति के लिए वय का निर्धारण मान्य था। उनमें चार आश्रमों की मान्यता बहु- प्रचलित थी । संन्यास चौथे आश्रम में ही लिया जा सकता है - यह उद्घोष सुनाई देता था । इस इयत्ता ने धर्म-प्रज्ञप्ति में अनेक संकट उत्पन्न किए ।
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भगवान् महावीर ने कहा- 'जामा तिण्णि उदाहिया २ – अवस्थाएं तीन हैं - प्रथम, मध्यम और पश्चिम । प्रथम अवस्था का कालमान नौ वर्ष से तीस वर्ष तक, मध्यम का तीस से साठ वर्ष तक तथा तृतीय वय का कालमान साठ से ऊपर है। इन तीनों अवस्थाओं में धर्माचरण हो सकता है, सम्बोधि प्राप्त हो सकती है - यह भगवान् महावीर का क्रान्तिकारी निर्देश था ।
वय
'मज्झिम वय' – इससे यह स्पष्ट प्रतिपादित किया गया है कि धर्मजागरण के लिए यद्यपि अवस्था का कोई प्रतिबंध नहीं है, फिर भी 'मध्यम वय' प्रव्रज्या के लिए अत्यन्त उपयुक्त है । क्योंकि प्रायः तीर्थंकर, गणधर आदि इसी प्रव्रजित होते हैं तथा इस वय तक व्यक्ति अनेक भोगों को भोग भुक्तभोगी हो भोगों के कटु परिणामों से सुपरिचित हो जाता है और उनके प्रति जो आकर्षण होता है, वह मिट जाता है । दूसरी बात है कि उसके मन के सभी कुतूहल शान्त हो जाते हैं और वह सुखपूर्वक विराग - मार्ग पर स्थित रह सकता है । उसका विज्ञान भी पटुतर होता है और अनुभव की परिपक्वता से वह दुरनुचर तथा घोर मार्ग का भी निष्ठा से आचरण कर सकता है ।
उपरोक्त कथन को हमें आगमकालीन परिस्थिति में पढ़ना चाहिए। आज की सामाजिक स्थिति में चाहे वह कुछ अपर्याप्त भी मालूम पड़े, फिर भी उसमें अन्तर्निहित सत्य को नहीं नकारा जा सकता ।
१. आचारांग, ८।३ । ३० ।
२. आचारांग, ८ । १ । १५ ।