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आगम-सम्पादन की यात्रा नहीं हैं। श्लोक 'गंभीरं झसिरं' से प्रारंभ होते हैं और 'न पडिगेण्हंति संजया' में तीन श्लोक समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार दो श्लोकों (६६वें-६९वें) के प्रथम दो चरण 'न तेण भिक्खू गच्छेज्जा दिट्ठो तत्थ असंजमो' और 'एयारिसे महादोसे जाणिऊण महेसिणो'-कम हो जाने के कारण एक श्लोक का अवसान हो जाता है।
पांचवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक में भी श्लोकों का विपर्यास हआ है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह मुनि और जिनदास महत्तर पाठों के विषय में एकमत हैं। ___दोनों चूर्णिकार इस उद्देशक के दसवें और ग्यारहवें श्लोक के स्थान पर एक ही श्लोक मानते हैं-'समणं माहणं वा वि किविणं वा वणीमगं। तं अइक्कमित्तु न पविसे न चिट्ठे चक्खु-गोयरे' यह पाठ ठीक जान पड़ता हैं। दोनों श्लोकों के अंतिम दो-दो पाद कोई विशेष अर्थ नहीं रखते। इसी प्रकार चौदहवें और पन्द्रहवें श्लोक को व्यर्ध (दिवड्डसिलोगो) माना है
उप्पलं पउमं वा वि, कुमुयं वा मगदंतियं । अन्नं वा पुप्फ सच्चित्तं, तं च संलुंचिया दए।
देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं। दोनों चूर्णिकार (५।१।४१, ४३वें) श्लोक के प्रथम दो-दो चरण 'तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं' स्वीकार नहीं करते। अगस्त्यसिंह मुनि 'दिवड्ड सिलोगो' लिखते हैं। जिनदास महत्तर कुछ भी उल्लेख नहीं करते। __इस प्रकार ‘एवं तु अगुणप्पेही' (५।२।४१) यह श्लोक भी दोनों चूर्णियों में नहीं है। केवल टीकाकार ही इन सबको मान्य करते हैं। चूर्णिकारों में तथा टीकाकारों में इतना मतभेद क्यों रहा, यह अन्वेषण का विषय है, विस्तार करने की परम्परा कब और क्यों चली? यह तर्कगत होते हुए भी विशेष चिन्तन की ओर प्रेरित करती है। साम्प्रतम् तो हम अनुमान-प्रमाण द्वारा ही इसका समाधान पा सकते हैं।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि तीनों मनीषी पांचवें अध्ययन की श्लोक-संख्या में एकमत नहीं है।
टीकाकार हरिभद्रसूरि ने पांचवें अध्ययन के १५० पद्य माने हैं। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह मुनि १७३ पद्य स्वीकार करते हैं और द्वितीय चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने स्पष्टरूप से १५२ पद्य माने हैं और प्रकारान्तर से १७३ पद्य मानते