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ध्यान किया जाता है । “आइच्चेसु अहियं पयासयरा" का प्रयोग दर्शन - केन्द्र पर किया जाता है ।
अन्तर्दृष्टि के जागरण का केन्द्र
प्रज्ञा संपन्न आचार्य, आचार्य श्री महाप्रज्ञजी का मानना है कि दर्शन-केन्द्र पर सूर्य के प्रकाश का अथवा बाल सूर्य का ध्यान अन्तर्दृष्टि के जागरण का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है । इसका अभ्यास करने वाला तीसरे नेत्र का उद्घाटन कर सकता है। इस प्रयोग को करने वाला बाहरी पढ़ाई पर निर्भर नहीं रहता उसकी अतीन्द्रिय चेतना के स्रोत खुल जाते हैं ।"
बाल सूर्य का रंग पराक्रम और पौरुष का रंग माना गया है। जिन लोगों में सुस्ती ज्यादा है, आलस्य और मंदता है, जिनमें मोह प्रबल है, जिनकी अन्तर्दृष्टि जागृत नहीं है उनके लिए णमो सिद्धाणं का हल्के लाल रंग के साथ इसी केन्द्र पर ध्यान करना उपयोगी है। आज्ञाचक्र के जागृत होने से ज्योति - केन्द्र और दर्शन - केन्द्र की कार्यक्षमता अत्यन्त विकसित हो जाती है तथा व्यक्ति अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि हो जाता है। इसके जागृत होने से पाप करने की इच्छा समाप्त होने लगती है । व्यक्ति पापभीरु बनता है । एकाग्रता वृद्धि, कार्य क्षमता वृद्धि, कार्य सिद्धि और निर्णायक शक्ति का विकास होता है ।
मन से परे निर्विचार में जाने के लिए दर्शन-केन्द्र पर ध्यान करना चाहिए । इसके दीर्घकालिक अभ्यास से अन्तदर्शन और दूरदर्शन की लब्धि संभव है । " जिसकी अन्तर्दृष्टि जाग जाती है उसका चिंतन, विचार, निर्णय, सारे अलौकिक होते हैं । भगवान महावीर पंडित, विद्वान या ज्ञानी नहीं थे पर वे अन्तर्दृष्टि से, अतीन्द्रिय चेतना से संपन्न थे । उनका तीसरा नेत्र जागृत था । सूत्र कृतांग में भगवान महावीर को अनंत चक्षु कहा है । केवलज्ञानी की आँख पूरे रोम-रोम में होती है।
बुद्धि और अतीन्द्रिय ज्ञान- इन दोनों के बीच में अन्तर्दृष्टि का जागरण होता है। इस जागरण से विवेक चेतना का विकास, समता का विकास, अतीन्द्रिय चेतना का विकास तथा प्रिय और हित में हित को प्रमुखता देने की दृष्टि प्राप्त होती है । नेपोलियन बोनापार्ट के वाटर लू की लड़ाई में हारने का प्रमुख कारण था उसकी पिच्युटरी ग्लैण्ड का खराब हो जाना। जिसके कारण वह सही समय पर सही निर्णय नहीं ले सका । इस ग्रंथि के विकृत होने पर स्राव के अनियंत्रित होने से व्यक्ति के चिन्तन और निर्णय में विकृति आ जाती है और वह उचित समय पर उचित निर्णय नहीं ले सकता। यह ग्रंथि विकृत होती है भावना के क्षोभ द्वारा ।
४६ / लोगस्स - एक साधना-२